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कषाय-सूत्र
कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्ढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचन्ति भूलाई पुण्णब्भवस्स।। पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह । पडणं नालमेगस्स, इह विज्जा तवंचरे ||
अनिगृहित क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ, ये चारों काले कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार वृक्ष की जड़ों को सींच रहते हैं ।
चावल और जौ आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्वी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है, यह जानकर संयम का ही आचरण करना चाहिए ।
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