________________
प्रमाद-स्थान-सूत्र : 2 रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति. दुमं जहा साउफलं व पक्खी।। न कामभोगा समयं उवेन्ति, न यावि भोगा विगइं उवेन्ति ।। जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ।।
दूध, दही, घी, मक्खन, मलाई, शक्कर, गुड़, खांड, तेल, मधु, मद्य, मांस आदि रसवाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसी ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष की ओर पक्षी। काम-भोग अपने आप न किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्वेष रूप विकृति पैदा करते हैं, परन्तु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-द्वेष के नाना संकल्प बनाकर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है।
58
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.