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प्रमाद - स्थान - सूत्र : 1
पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ।।
दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होई तण्हा ।
तहा या जस्स न होई लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ||
प्रमाद को कर्म कहा है और अप्रमाद को अकर्म अर्थात जो प्रवृत्तियां प्रमादयुक्त हैं वे कर्म-बंधन करनेवाली हैं और जो प्रवृत्तियां प्रमादरहित हैं, वे कर्म-बंधन नहीं करतीं। प्रमाद के होने और न होने से मनुष्य क्रमशः बाल-बुद्धि (मूर्ख) और पण्डित कहलाता है। जिसे मोह नहीं उसे दुख नहीं, जिसे तृष्णा नहीं उसे मोह नहीं, जिसे लोभ नहीं उसे तृष्णा नहीं, और जो ममत्व से अपने पास कुछ भी नहीं रखता, उसका लोभ नष्ट हो जाता है ।
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