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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 बाइबिल की नाव में बैठा है, कोई गीता की नाव में बैठा है, कोई कुरान की नाव में बैठा है; कोई महावीर के वचनों की नाव में, कोई बुद्ध के वचनों की नाव में। लेकिन नाव लोगों ने कागज की बना ली है। इसलिए लोग डब रहे हैं और जगह-जगह दर्घटनाएं हैं। और धर्म के नाम शोरगुल चलता है, लेकिन धर्म का कोई प्रकाश जीवन में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। तो धर्म एक उत्सव हो गया है—कभी-कभी मना लेने की बात: कभी-कभी शोरगल मचा लेने की बात है कि हम आत्मवादी लोग हैं: कि हम पदार्थ को ही सब कछ नहीं हम आत्मा को भी मानते हैं। लेकिन मानने से कुछ भी होनेवाला नहीं है, जानना जरूरी है। __ इसलिए महावीर कहते हैं, जिसे अभी यह ही पता नहीं है कि आत्मा क्या है और शरीर क्या है, वह संयम नहीं साध सकेगा। लेकिन आप साधुओं से जाकर पूछे। दूसरे साधुओं को छोड़ दें, महावीर के ही साधुओं से जाकर पूछे कि तुम्हें अनुभव हुआ है भीतर कि शरीर कहां खत्म होता है और आत्मा कहां शुरू होती है? कहां सीमांत है? कहां दोनों मिलते हैं? और कहां दोनों में फासला है? और अगर अनुभव नहीं हुआ है, तो तुम जो संयम साध रहे हो-महावीर तो कहते हैं, ऐसा साधक संयम साधेगा ही कैसे! लेकिन साधुसंयम साध रहे हैं। संयम में उनके कोई कमी नहीं है। क्या भोजन करना, कितना करना, कब सोना, कब उठना, कितनी सामायिक करनी, कितना ध्यान करना—सब कर रहे हैं; कितना प्रतिक्रमण-सब नियम से चल रहा है, यंत्रवत। उसमें कहीं कोई भूल-चूक नहीं। संयम पूरा चल रहा है। लेकिन उनका संयम, संयम नहीं है—हो नहीं सकता। क्योंकि महावीर की पहली शर्त ही पूरी नहीं हो पा रही है। लेकिन उनकी कोशिश यह है कि संयम के द्वारा वे जान लेंगे कि शरीर और आत्मा क्या है। और महावीर उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, जो जान लेगा कि शरीर और आत्मा क्या है, उसके जीवन में ही संयम हो सकता है। हम चीजों को उलटा लेते हैं। उलटा लेने का कारण है-हम उलटे खड़े हैं। हमें हर चीज उलटी दिखाई पड़ती है। महावीर को भी जब हम देखते हैं, तो हम उनको उलटा देखते हैं। जो पहले है उसे पीछे कर देते हैं, जो पीछे है, उसे पहले कर देते हैं। फिर हमें सुविधा हो जाती है। अगर हम महावीर की बात को वैसा ही रहने दें, जैसी वह है, तो हमारे जीवन को हमें बदलना पडेगा। क्या फर्क है? महावीर कहते हैं, भीतरी बोध पहले होगा, फिर बाहरी संयम होगा। हम क्या करते हैं? - हम पहले बाहरी संयम साधते हैं, फिर सोचते हैं, भीतरी बोध अपने आप आ जायेगा। हमारे लिए बाहर का मूल्य इतना ज्यादा है कि संयम को भी जब हम साधते हैं तो बाहर से ही शुरू करते हैं। हमारी आंखें बाहर से इस तरह आब्सेस्ड हो गयी हैं, इस तरह बंध गयी हैं। और हमारी वासनाओं ने हमें बाहर से इस तरह चिपका दिया है कि हम अगर साधना भी करते हैं तो भी बाहर से ही शुरू करते हैं। और साधना शुरू ही हो सकती है भीतर से। बाहर से जो शुरू होगी, वह संसार में ले जायेगी। लेकिन वासनाएं आदमी को मूर्च्छित कर देती हैं। _ मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक होटल में ठहरा हुआ है। वह सांझ को लौट रहा है अपने कमरे की तरफ। एक दरवाजे के भीतर से उसे आवाज सुनाई पड़ती है एक स्त्री और एक पुरुष की-शायद अपना हनीमून मनाने आये होंगे। तो वह दरवाजे पर खड़े होकर सनता है। तो वह पति अपनी पत्नी से कह रहा है कि तेरे जैसा सौंदर्य कभी-कभी सदियों में होता है। मैं चाहंगा कि इस जगत का सबसे श्रेष्ठ कलाकार तेरी मूर्ति को या तेरे चित्र को निर्मित कर दे ताकि भविष्य की पीढ़ियां भी जान सकें कि ऐसा सौंदर्य भी कभी हआ है। 516 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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