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संयम है संतुलन की परम अवस्था
पिता ने पूछा कि नसरुद्दीन, लालटेन क्यों साफ कर रहा है? क्या इरादे हैं? उसने कहा कि मैं जरा जा रहा हूं अभिसार को। पत्नी की तलाश आखिर मुझे भी करनी होगी ! तो मैं जरा पत्नी की तलाश पर जा रहा हूं ।
उसके पिता ने कहा कि पत्नी की तलाश हमने भी की थी, बाकी लालटेन लेकर हम कभी न गये ! यह लालटेन किसलिए ले जा रहा है?
नसरुद्दीन ने कहा कि देखें, दैट काउन्ट्स फार इट; लुक ऐट योर वुमन, माइ मदर ! अंधेरे में ढूंढ़ोगे तो ऐसा ही पाओगे। यह भूल मैं नहीं करनेवाला हूं। मैं ठीक प्रकाश में चीजें खोजना चाहता हूं !
भीतर भी हम अंधेरे में ही खोज रहे हैं। और अगर हमें वहां कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता... ।
कभी आपने आंख बंद करके भीतर देखा है? सिवाय अंधेरे के कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता ।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि आप कहते हैं, भीतर देखो। लेकिन भीतर देखें कैसे ? आंख बंद करते हैं, वहां अंधेरा है । वहां कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। देखना क्या है?
रोशनी बाहर है, अंधेरा भीतर है। बाहर सब दिखाई पड़ता है, भीतर कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और बाहर हमने रोशनी को बढ़ाने बड़े उपाय कर लिये हैं। कभी आदमी गहन अंधकार में था, गुहाओं में था। फिर आग खोजी तो गुहाओं का अंधेरा मिट गया । फिर विकास होता चला गया। फिर आज बिजली है और रातें रातों- जैसी नहीं रह गयी हैं, दिन से भी ज्यादा प्रकाशवान हो गयी हैं।
बाहर हमने प्रकाश की बड़ी खोज कर ली है। बाहर भी ऐसा ही अंधेरा था । पर हमने वहां रात मिटा दी । भीतर हम प्रकाश की कोई खोज नहीं करते हैं, अन्यथा वहां भी प्रकाश की संभावना है। जहां-जहां अंधेरा है, वहां-वहां प्रकाश हो सकता है। अंधेरे का मतलब ही यह है कि जहां प्रकाश हो सकता है, इसकी संभावना है।
सारी साधना-पद्धतियां भीतर की अग्नि खोजने का प्रयास है। भीतर रोशनी कैसे जले । भीतर कैसे थोड़ा-सा प्रकाश और थोड़ी-सी किरणें पैदा हो जायें ताकि वहां भी चीजें साफ हो सकें कि क्या क्या है ।
अभी तो हम आंख बंद करके बैठ जाते हैं तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता । और अगर कुछ दिखाई भी पड़ता है तो वह बाहर का ही होता है— कोई मित्र की तस्वीर, कोई याददाश्त, कोई घटना, बाजार, दुकान। आंख भी बंद करते हैं तो आंख बंद होती नहीं, चित्त तो बाहर की तरफ ही खुला रहता है।
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बंद आंख में भी तस्वीरें बाहर की ही चलती हैं - तो हम भीतर नहीं हैं। और इसका इतना अभ्यास हो गया है कि हम यह बात ही
भूल गये हैं कि भीतर भी ऐसा कोई क्षण हो सकता है, जब बाहर की कोई तस्वीर न चलती हो; जब बाहर का कोई प्रतिबिंब न बनता हो; जब बाहर से हमारा संबंध ही छूट जाता हो और हम निपट भीतर होते हों।
शुरुआत में अंधेरा अनुभव होगा। क्योंकि बाहर की रोशनी ने आंखों को बाहर की रोशनी का आदी कर दिया है।
और ध्यान रहे, बाहर की रोशनी को भीतर ले जाने का कोई उपाय नहीं है। आप दीये को भीतर नहीं ले जा सकते; न बिजली को भीतर ले जा सकते हैं। बाहर की कोई रोशनी भीतर काम न देगी, क्योंकि भीतर के अंधेरे का गुण-धर्म अलग है। बाहर का अंधेरा और तरह का अंधेरा है; और बाहर के अंधेरे को मिटाने के लिए और तरह का प्रकाश चाहिए । भीतर का अंधेरा और तरह का अंधेरा है— उसे मिटाने के लिए और तरह का प्रकाश चाहिए। उस प्रकाश का गुण-धर्म अलग होगा ।
इसलिए बाहर का प्रकाश तो भीतर लाया नहीं जा सकता, एक बात । और बाहर के प्रकाश के कारण भीतर हमें गहन अंधेरा मालूम पड़ता है, क्योंकि प्रकाश की हमें आदत हो गयी है ।
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