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________________ पहले ज्ञान, बाद में दया हो गयी है। शरीर एक कुरुक्षेत्र बना है। उस कुरुक्षेत्र में शरीर उत्तप्त हो गया है। ___ उत्तप्तता बीमारी नहीं है। उत्तप्तता केवल बीमारी की खबर है। और उत्तप्तता शुभ है, क्योंकि वह खबर दे रही है कि कुछ करो-जल्दी करो। ठंडे पानी से उसको ठंडा किया जा सकता है, लेकिन इससे बुखार के मिटने की संभावना कम, मरीज के मिट जाने की संभावना ज्यादा है। लक्षणों से लड़ना अज्ञान है। आप हिंसक हैं, क्योंकि भीतर कोई मूर्छा है । हिंसा लक्षण है, बीमारी नहीं । आप चोर हैं, दुष्ट हैं, कामुक हैं, पापी हैं ये लक्षण हैं । इनसे लड़ने की कोई जरूरत नहीं है । इनसे जो लड़ता है, वह भटक जायेगा । उसने चिकित्सा-शास्त्र का प्राथमिक नियम भी नहीं समझा । यह केवल खबर दे रहे हैं कि भीतर आत्मा सोयी हुई है—बस, इतनी खबर दे रहे हैं। आत्मा को जगाओ, ये बदल जायेंगे। ___ अहिंसक होने से कोई आत्मज्ञानी नहीं होता, आत्मज्ञानी होने से अहिंसक होता है। पहले ज्ञान, फिर दया । लेकिन जैन इसको बिलकुल खयाल में नहीं ले पाये। वे ‘पहले दया, फिर ज्ञान' की पूरी कोशिश कर रहे हैं। पहले अहिंसा साधो, आचरण साधो, व्रत-नियम साधो-सब तरह से बाहर की पहले व्यवस्था करो, फिर भीतर की। वे कहते हैं कि पहले बाहर और फिर भीतर । और महावीर कहते हैं : पहले भीतर और फिर बाहर । बाहर अटक जाना साधक के लिए सबसे खतरनाक है। क्योंकि वह अटकाव इतना लंबा है कि जन्मों लग सकते हैं और उससे छुटकारा न हो; और छुटकारा होगा नहीं। हिंसा को बाहर से रोको, बुखार को बाहर से रोको-बुखार दूसरी तरफ से निकलना शुरू हो जायेगा । और जब दूसरी तरफ से निकलेगा तो ज्यादा खतरनाक होगा। पहला निकलना नैसर्गिक था; दूसरा विकृत, परवर्टेड होगा। _ कामवासना को बाहर से रोक लो, कामवासना दूसरी तरफ से निकलनी शुरू हो जायेगी। यह दूसरी तरफ से निकलना रोगपूर्ण होगा। पहला तो कम से कम प्राकृतिक था, यह अप्राकृतिक होगा। कामवासना से लड़ने से कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता, लेकिन स्वयं का बोध आना शुरू हो जाये, ब्रह्मचर्य उसकी छाया की तरह पीछे आने लगता है। ___ आचरण छाया है । छाया को खींचने की कोशिश मत करो । उसे कोई भी खींच नहीं सकता। आप जहां होओगे, वहां छाया पहुंच जायेगी । अगर आप आत्मा में हो, तो छाया आत्मिक हो जायेगी । अगर आप शरीर में हो, तो छाया शारीरिक होगी । फिर आप कुछ भी करो, आपके करने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए मौलिक करने की जो बात है, गहरी करने की जो बात है, वह आत्मिक ज्ञान है। महावीर कहते हैं, वह विवेक से फलित होगा । जितना भीतर होश जगेगा, उतनी भीतर की प्रतीति होगी । वही ज्ञान है। पहले ज्ञान, बाद में दया । इसी क्रम पर—यह क्रम बहत मल्यवान है-त्यागी अपनी संयम यात्रा परी करता है। इसी क्रम पर-पहले ज्ञान फिर दया । लेकिन आदमी होशियार है, और अपने मतलब की बातें निकालता रहता है और गणित बिठाता रहता है। इस सूत्र को बदलना तो बहुत मुश्किल है। मैं एक जैन मंदिर में गया । एक मुनि को बड़ी इच्छा थी कि मुझसे मिलें । वे आ नहीं सकते थे मिलने क्योंकि उनके आसपास जो गृहस्थों का जाल है, कारागृह है, वह उन्हें आने नहीं देता । यह बड़े मजे की बात है। मुनि जाता है मुक्त होने । एक गृहस्थी से छूटता है, पचीस गृहस्थियों के चक्कर में फंस जाता है। उन मुनि ने खुद मुझे खबर भेजी कि मैं आ नहीं सकता, क्योंकि श्रावक बाधा डालते हैं । वे कहते हैं, आपको जाने की क्या जरूरत ? 501 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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