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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 एक अर्थ में पंडितों ने जो अर्थ लिया, वह ठीक मालूम पड़ेगा। क्योंकि साधक ने जो पूछा था, जिज्ञासु ने जो सवाल उठाया था, अगर महावीर उसी तल पर जवाब दे रहे हैं, तो पंडितों ने जो अर्थ किये हैं जैन परंपरा में, वे ठीक हैं। लेकिन जहां अज्ञानी पूछता है और ज्ञानी उत्तर देता है, वहां डायमेन्शन-आयाम बदल जाते हैं; अज्ञानी की भाषा और ज्ञानी की भाषा में बुनियादी अंतर हो जाता है। जहां अज्ञानी की भाषा बहिर्मुखी होती है, ज्ञानी की भाषा अंतर्मुखी हो जाती है। __इसमें समझ लेना यह है कि सारी क्रियाओं के बीच जिस बात पर जोर है, वह विवेक है। क्रियाएं गौण हैं, विवेक महत्वपूर्ण है। और विवेक का अर्थ डिस्क्रिमिनेशन नहीं है, भेद नहीं है। विवेक का अर्थ होश है, अमूर्छा है, अप्रमाद है, जागरूकता है। अगर विवेक का अर्थ-भेद है-सही और गलत में, तो बात बाहरी हो गयी कि मैं चोरी न करूं, दान करूं। लेकिन अगर विवेक का अर्थ आंतरिक जागरूकता है, तो बाहर भेद करने का कोई सवाल नहीं है; भीतर मैं जागरूक रहूं। अगर भीतर मैं जागरूक हूं, तो चोरी होगी ही नहीं; नहीं करने का सवाल नहीं है। दान होगा; करने का सवाल नहीं है। __विवेक से जागा हुआ व्यक्ति बांटता ही रहता है। बांटना उसका आनंद हो जाता है। विवेक से जीता हुआ व्यक्ति दूसरे से छीनने का सोच भी नहीं सकता, क्योंकि दूसरे के पास न छीनने को कुछ है, न दूसरे से कुछ छीना जा सकता है। और छीनने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जो भी हो सकता है, वह मेरे भीतर स्वयं मौजूद है। विवेक से जागा हुआ व्यक्ति अपनी अपार संपदा को देखता है। इस अपार संपदा का मालिक चोरी करने जायेगा, किसी से छीनेगा, झपटेगा; यह सवाल ही नहीं उठता है। और इस विवेक में एक महत्वपूर्ण बात दिखाई पड़नी शुरू होती है कि जो मैं देता हूं, उसी का मैं मालिक हं; जो मैं दे सकता हूं, वही मेरी संपदा है; जो मैं रोक लेता हूं, उसका मैं मालिक नहीं हूं। ___ इसलिए ध्यान रहे, जो भी आप दे पाते हैं, आप सिर्फ उसके ही मालिक हैं। दान ही खबर देता है कि आप मालिक थे। कंजूस मालिक नहीं है अपने धन का, धन ही कंजूस का मालिक है। जो दे सकता है, आनंद से दे सकता है ! ध्यान रहे, सामान्य आदमी आनंद से ले सकता है, दे नहीं सकता। देने में पीड़ा है, लेने में सुख है। लेकिन अगर लेने में सुख है और देने में पीड़ा है, तो आपका जीवन पूरा का पूरा पीड़ा से ही भरा रहेगा। __ जैसे ही व्यक्ति के जीवन में क्रांति घटित होती है, होश आता है, सारे नियम बदल जाते हैं। लेने की जगह देना नियम हो जाता है। लेने में सुख नहीं, देने में सुख शुरू हो जाता है। इसलिए चोरी का तो प्रश्न नहीं है। दूसरे को नुकसान पहुंचाने का सवाल नहीं है। क्योंकि हम नुकसान दूसरे को इसीलिए पहुंचाना चाहते हैं कि हम भयभीत हैं कि दूसरा हमें नुकसान न पहुंचा दे। मेक्यावली ने कहा है कि इसके पहले कि कोई तुम पर आक्रमण करे, तुम आक्रमण कर देना; क्योंकि m शाम को नामाकमण कर देना. क्योंकि पहले आकमण कर देना सरक्षा का सुगमतम उपाय है, एकमात्र डिफेन्स है जगत में। जहां हम खड़े हैं अंधेरे में, वहां पहले हमला कर देना, इसके पहले कि कोई हमला करे। इसके पहले कि कोई मुझसे छीन ले, मैं छीन लू; इससे पहले कि कोई मुझे दुख दे, मैं उसे दुख दे दूं यही इस अंधेरे में चलती हुई व्यवस्था है। जैसे ही कोई भीतर होश से भरता है, यह सारी व्यवस्था बदल जाती है। इसके पहले कि कोई मझसे छीने, मैं दे दं, और देने से आनंदित हो जाऊं। जीसस ने कहा है, कोई अगर तुम्हारा कोट छीने, तो तुम कमीज भी दे देना। और कोई अगर तुमसे एक मील बोझ ढोने को कहे, तो तम दो मील तक चले जाना। जीसस के इस वचन को ईसाइयत ठीक से समझ नहीं पायी। यह वचन जीसस को भारत से ही मिला। यह वचन बौद्ध 492 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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