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________________ महावीर वाणी भाग : 2 जैसे कमल को देखकर किसी को लगे कि ऐसा कमल जैसा फूल तो मक्खन से ही पैदा हो सकता है, कीचड़ से नहीं। लेकिन मक्खन से कोई कमल पैदा नहीं होता। अभी तक कोई मक्खन कमल पैदा नहीं कर पाया। कमल कीचड़ से ही पैदा होता है। असल में पैदा होने का ढंग कीचड़ में ही संभव है। इसलिए हमने कहा जो एक दफा कमल हो जाता है, फिर वह दुबारा पैदा नहीं होता, क्योंकि दुबारा पैदा होने का कोई उपाय नहीं रहा। अब वह कीचड़ में नहीं उतर सकता है इसलिए दुबारा पैदा नहीं हो सकता। इसलिए हम कहते हैं, उसकी जन्म-जन्म की यात्रा समाप्त हो जाती है, जिस दिन व्यक्ति कमल हो जाता है। कमल तक यात्रा है कीचड़ की। कीचड़ कमल सकती है लेकिन फिर कमल कीचड़ नहीं हो सकता। वापस गिरने का कोई उपाय नहीं है । इसलिए भी कमल बड़ा मीठा प्रतीक हो गया। अगर हम भारतीय चेतना का, पूर्वीय चेतना का कोई एक प्रतीक खोजना चाहें तो वह कमल है। ' महावीर कहते हैं— 'जैसे कमल शरद काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता बड़ी मजे की बात कही है। गंदे जल को तो छूता ही नहीं – निर्मल, शरद - काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता । जिसको छूने में कोई हर्जा भी न होगा, लाभ भी शायद हो जाये, उसको भी नहीं छूता । छूता ही नहीं। लाभ-हानि का सवाल नहीं है। गंदे और पवित्र का भी सवाल नहीं है। छूना ही छोड़ दिया है। पाप को तो छूता ही नहीं, पुण्य को भी नहीं छूता है । 'शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता, जैसे कमल, अलिप्त रहता है। वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेह बंधनों से रहित हो जा गौतम! ' वह गौतम को कह रहे हैं कि ऐसा ही तू भी हो जा। जहां-जहां हमारा स्नेह है, वहां-वहां स्पर्श है, स्नेह हमारे छूने का ढंग है। जब आप स्नेह से किसी को देखते हैं, छू लिए, चाहे कितने ही दूर हों । एक आदमी क्रोध से आकर छुरा मार दे आपको, तो भी छूता नहीं है। छुरा आपकी छाती में चला जाये, लहूलुहान हो जाये सब, तो भी आपको छूता नहीं है। दूर है बहुत और एक आदमी हजारों मील दूर हो और आपकी याद आ जाये स्नेह-सिक्त, तो छू लेता है, उसी वक्त । स्नेह स्पर्श है। जब आप स्नेह से किसी की तरफ देखते हैं, तब आपने अलिंगन कर ही लिया, छू लिया। छूना हो गया। मन छू ही गया। महावीर कहते हैं, जब तक यह स्पर्श चल रहा है बाहर, यह आकांक्षा चल रही है कि किसी का स्पर्श सुख देगा, यही स्नेह का अर्थ है। तब तक व्यक्ति संसार में ही होगा संन्यास में नहीं हो सकता । जब तक कमल कीचड़ को छूने को आतुर है, तब तक दूर कैसे जायेगा, उठेगा कीचड़ से पार कैसे? जब तक कमल खुद ही छूने को आतुर है, तब तक मुक्त कैसे होगा। स्नेह बंधन है। जहां-जहां हम छूने की आकांक्षा से भरते हैं, जहां-जहां हम दूसरे में, दूसरे से सुख पाने की आकांक्षा से भरते हैं, वहां-वहां हम लिप्त हो जाते हैं। असल में, जहां दूसरा महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है, वहीं हम लिप्त हो जाते हैं। जहां दूसरे पर ध्यान जाता है, वहीं हम लिप्त हो जाते हैं। आपका ध्यान चारों तरफ तलाश करता रहता है कि किसको देखें, किसको छुएं । आपका ध्यान चारों तरफ दौड़ता रहता है। जैसे आक्टोपस के पंजे चारों तरफ ढूंढते रहते हैं किसी को पकड़ने को । आपका ध्यान आपकी सारी इंद्रियों से बाहर जाकर तत्पर रहता है, किसको छुएं! आप अपने को रोकते होंगे, संभालते होंगे। जरूरी है, उपयोगी है, सुविधापूर्ण है। लेकिन आपका ध्यान भागता रहता है चारों तरफ। आप अपने मन की खोज करेंगे तो पायेंगे कि कहां-कहां आप लिप्त हो जाना चाहते हैं, कहां-कहां आप छू लेना चाहते हैं। Jain Education International 34 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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