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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 रहे, तो भी भीड़ उसमें प्रवेश न कर पाये, वह भीड़ के बाहर बना रहे। इतने असंग होने की जो साधना है, वही व्यक्ति को आत्मवान बनायेगी। जितना असंग हो सकेगा आदमी, उतना आत्मवान हो सकेगा; और जितना भीड़ में खो जाता है, उतना आत्महीन हो जाता है। आप सब भीड़ में खोने को उत्सुक रहते हैं। आत्महीन होने में सारी जिम्मेवारी हट जाती है। ध्यान रहे, दुनिया में जो बड़े पाप होते हैं, वे निजी अकेले में नहीं किये जाते। उनके लिये भीड़ चाहिये। एक हिंदुओं की भीड़ मस्जिद को जला रही है, या मुसलमानों की भीड़ मंदिर को जला रही है। इस भीड़ में जितने मुसलमान हैं, अगर उनको एक-एक से अलग-अलग पूछा जाये कि क्या तुम अकेले मंदिर को जलाने की जिम्मेवारी लेते हो ? मुसलमान इनकार करेगा। अगर हिंदू से पूछा जाये कि क्या तुम अकेले इस मस्जिद को आग लगाने का विचार करोगे? वह कहेगा कि नहीं। लेकिन भीड़ में आसान हो जाता है। क्योंकि भीड़ में मैं जिम्मेवार नहीं हूं। जब भीड़ हत्या कर रही हो, तो आप भी दो हाथ लगा देते हैं। इस दो हाथ लगाने में आपकी निजी जिम्मेवारी नहीं है। और ध्यान रहे, भीड़ आपको निम्नतम जगत में ले आती है। क्योंकि जैसा पानी का स्वभाव है, एक लेवल पर आ जाना...अगर आप पानी को डाल दें? तो फौरन लेवल बना लेगा। पानी निकाल लें नदी से, नदी फिर लेवल पर हो जायेगी। आपका चित्त भी एक लेवलिंग करता रहता है पूरे वक्त । जब आप हजार आदमियों की भीड़ में खड़े होते हैं, तो हजार आदमियों के चित्त की जो निम्नतम सतह है, वहीं आपकी सतह हो जाती है। तत्क्षण आप छोटे आदमी हो जाते हैं। ___ भीड़ में पाप बड़ा आसान है करना। अकेले में पाप करना बहुत कठिन है। क्योंकि अकेले में आपको कोई दूसरे पर जिम्मा छोड़ने का मौका नहीं होता। तो महावीर कहते हैं कि जब तक कोई व्यक्ति भीड़ से मुक्त न होने लगे, तब तक आत्मवान नहीं होगा। जैसे-जैसे व्यक्ति अकेला होने लगता है, वैसे-वैसे बुराई गिरने लगती है। और जिस दिन व्यक्ति बिलकुल अकेले होने में समर्थ हो जाता है, तो महावीर कहते हैं, वह असंग स्थिति कैवल्य का जन्म बन जाती है। 'जो मुनि अलोलुप है, जो रसों में अगृद्ध है, जो अज्ञात कुल की भिक्षा करता है, जो जीवन की चिंता नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार, पूजा और प्रतिष्ठा का मोह छोड़ देता है, जो स्थितात्मा तथा निस्पृही है, वही भिक्षु है।' 'जो जीवन की चिंता नहीं करता...।' जो जीता है, लेकिन चिंता निर्मित नहीं करता। हम जीते कम हैं, चिंता ज्यादा करते हैं। अगर ऐसा हो जाये, तो क्या होगा? अगर ऐसा न हुआ होता, तो कितना अच्छा होता । हम इस तरह की चिंताएं अतीत के प्रति भी निर्मित करते हैं, भविष्य के प्रति भी। चिंताएं इतना हमें पकड लेती हैं कि जीने की जगह ही नहीं बचती; स्पेस भी नहीं बचती, जिसमें हम चल सकें और जी सकें। ___ आप अपने मन को सोचें। कल आपने किसी से कुछ कहा, आप सोचते हैं, न कहा होता। कोई अर्थ है ? जो कहा, वह कहा। उसको न कहने का अब कोई उपाय नहीं। लेकिन सोच रहे हैं अगर न कहा होता। और चिंतित हो रहे हैं। कल क्या कहना है, उसके लिये चिंतित हो रहे हैं। और ध्यान रहे, जो भी आप तय करके जायेंगे, वह आप कल कहनेवाले नहीं हैं, क्योंकि जिंदगी रोज बदल जाती है। और आप जो भी तय करते हैं. वह सब बासा और पराना हो जाता है। जिंदगी तो नयी, प्रतिपल परिवर्तनशील धारा है। वह नया प्रतिसंवेदन चाहती है। वह जो आप तय करके जाते हैं, बंधे हुए उत्तर हो जाते हैं। बंधे हुए उत्तर दिक्कत दे देते हैं। 458 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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