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अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु
जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, उसे हम भी जिंदगी कह नहीं सकते। भला सिंह ने आपको खत्म किया हो या न किया हो, आपने खुद ही अपने को खत्म कर लिया है। आपका होना राख जैसा है, अंगार जैसा नहीं है; बुझे बुझे हैं – किसी तरह — अगर कोई जिंदगी के का न्यूनतम ढंग हो, मिनिमम पर - जैसे दीया जलता है आखिरी वक्त में जब तेल चुक गया है; बाती ही जलती है, तेल तो चुक गया है । तो वैसा, जैसा पीला-सा प्रकाश उस आखिरी दीये में होता है, हमारा जीवन है ।
जर्मनी की एक बहुत क्रांतिकारी महिला हुई, रोजा लक्जेम्बर । उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि मैं ऐसे जीना चाहती हूं, जैसे कोई मशाल को दोनों तरफ से जला दे; चाहे एक क्षण को, मगर भभककर जीना चाहती हूं— मैक्सिमम; वह जो पराकाष्ठा है जीवन की, जो तीव्रता है, इन्टेन्सिटी है, उस पर जीना चाहती हूं ताकि मुझे जीवन का दर्शन हो जाए। यह जो न्यूनतम पर जीना है, इससे तो सिर्फ राख राख का स्वाद आता है ।
आप अपनी जबान को टटोलें - जिंदगी राख का एक स्वाद हो गयी है, जहां कुछ होता नहीं लगता; घसीटते-से मालूम होते हैं। नसरुद्दीन ठीक ही कह रहा है कि तुम इसे जिंदगी कहते हो?
पर यह राख कैसे जिंदगी हो गयी? हर बच्चा अंगारे की तरह पैदा होता है । जीवन प्रगाढ़ता से, सघनता से उसमें चमकता है। हर बच्चा पूरी क्षमता लेकर पैदा होता है कि जीवन का आखिरी और गहरे से गहरा स्वाद ले ले। लेकिन कहां खो जाता है वह सब, और मरते दम क्षण हम क्यों बुझे- बुझे मर जाते हैं? और इसे हम जीवन की प्रगति कहते हैं!
यह तो ह्रास है । यह तो पतन है। बच्चे कहीं ज्यादा जीवित होते हैं, बजाय बूढ़ों के । होना उलटा चाहिए— अगर आदमी ठीक-ठीक जीया हो, जिसको महावीर सम्यक जीवन कहते हैं; अगर ठीक-ठीक जीया हो तो बुढ़ापे में जीवन अपने पूरे निखार पर होगा; क्योंकि इतना अनुभव, इतनी अग्नि, इतने इतने जीवन के पथ, इतने प्रयोग जीवन को और भी साफ-सुथरा कर गये होंगे; कुंदन की तरह निखार गये होंगे। बूढ़ा तो बिलकुल शुद्ध हो जायेगा। लेकिन बूढ़ा तो बिलकुल मरने के पहले मर चुका होता है।
हम सब बुढ़ापे से भयभीत हैं। जीवन में कहीं कोई बुनियादी भूल हो रही है। और वह बुनियादी भूल यह है कि जहां जीवन का स्रोत है, वहां हम जीवन को नहीं खोजते; और जहां जीवन के अनुभव के छिद्र हैं, वहीं हम जीवन को टटोलते हैं।
इन्द्रियों में नहीं, इन्द्रियों के पीछे जो छिपा है, उसमें ही जीवन को पाया जा सकता है। लेकिन आप दो काम कर सकते हैं आसानी से—या तो इन इन्द्रियों को भोगने में लगे रहें, और या जब थक जायें, परेशान हो जायें, तो इन्द्रियों से लड़ने में लग जायें। लेकिन दोनों हालत में आप चूक जायेंगे मंजिल । न तो भोगनेवाला उसे पाता है, और न लड़नेवाला उसे पाता है। सिर्फ भीतर जागनेवाला उसे पाता है। भोगनेवाला भी इन्द्रियों से ही उलझा रहता है, और लड़नेवाला भी इंद्रियों से उलझा रहता है।
आप संसारी हों कि संन्यासी हों, कि गृहस्थ हों कि साधु हों - आप दोनों हालत में इंद्रियों से ही उलझते रहते हैं। आप दिन-रात स्वाद का चिंतन करते रहते हैं, और साधु, दिन-रात स्वाद का चिंतन न आये, इस कोशिश में लगा रहता है। लेकिन बड़ा मजा यह है कि जिसे विस्मरण करना हो, उसे स्मरण करना असंभव है। विस्मरण स्मरण की एक कला है, एक ढंग है। सच तो यह है कि आप किसी को स्मरण करना चाहें तो शायद भूल भी जाएं, और किसी को विस्मरण करना चाहें तो भूल नहीं सकते ।
कोशिश करके देखें । किसी को भूलने की कोशिश करें और आप पायेंगे कि भूलने की हर कोशिश याद बन जाती है । क्योंकि भूलने में भी याद तो करना ही पड़ता है।
तो गृहस्थ शायद भोजन का उतना चिंतन नहीं करता जितना साधु करता है । वह भुलाने की कोशिश में लगा है। भोगी शायद स्त्री-पुरुष के संबंध में उतना नहीं सोचता, जितना साधु सोचता है। वह भुलाने में लगा है। मगर दोनों ही घिरे हैं एक ही बीमारी से — छिद्रों
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