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________________ जीवन दो प्रकार का संभव है : एक शरीर के लिए, एक स्वयं के लिए। जो शरीर के लिए ही जीते हैं, मृत्यु के अतिरिक्त उनकी कोई और दसरी नियति नहीं है। जो स्वयं के लिए जीना शरू करते हैं. वे अमत को उपलब्ध हो जाते हैं। ___ मनुष्य मृत्यु और अमृत का जोड़ है। शरीर मरणधर्मा है । शरीर में जो छिपा है, वह अमरण-धर्मा है । अगर शरीर ही सबकुछ हो जाए, और जीवन की आधार-शिला बन जाए, तो हम सिर्फ मरते हैं, जीते नहीं हैं । जब तक शरीर में जो छिपा है—अदृश्य, चैतन्य, आत्मा, परमात्मा--जो भी नाम हम उसे दें, जब तक वह हमारे जीवन का आधार नहीं बनता, तब तक हम वास्तविक जीवन को जानने से वंचित ही रह जाते हैं। शरीर का जीवन इंद्रियों का जीवन है, दिखाई नहीं पड़ता; खुद स्मरण भी नहीं आता, क्योंकि हम उसमें इतने डूबे हैं कि देखने के लिए जितनी दूरी चाहिए, वह भी नहीं है; परिप्रेक्ष्य चाहिए, फासला चाहिए, वह भी नहीं है। अधिक लोग इंद्रियों के सुख के लिए ही अपने को समर्पित करते रहते हैं । इंद्रियों की बलिवेदी पर ही उनका जीवन नष्ट हो जाता है। ___ सुना है मैंने, पुराने दिनों में यूनान में भोजन की टेबल पर भोजन के साथ-साथ, थाली के पास ही पक्षियों के पंख भी रखे जाते थे, ताकि अगर भोजन बहुत पसंद आया हो, तो आप पंख को उठाकर वमन कर लें, गले में छुआ कर, और फिर से भोजन कर सकें। सम्राट नीरो के संबंध में कहा जाता है कि वह दिन में कम से कम बीस बार भोजन करता था। बीस बार भोजन करने के लिए जरूरी है कि हर बार भोजन करने के बाद उलटी की जाए, ताकि शरीर में भोजन न पहुंच पाये, भूख बनी रहे । तो सम्राट नीरो के पास दो चिकित्सक सिर्फ वमन करवाने के लिए सदा रहते थे। सिर्फ स्वाद के लिए व्यक्ति जीवित है। और उस स्वाद के लिए कष्ट भी सहने की तैयारी है । बीस दफा वमन करना, भोजन करना-तो जैसे सारा जीवन ही एक ही काम में लीन हो गया। जैसे आदमी सिर्फ एक यंत्र है, जिसमें भोजन डालना है। और आदमी का जैसे सारा सुख स्वाद में ठहर गया। नीरो अतिशयोक्ति मालूम पड़ता है, लेकिन हम भी बहुत भिन्न नहीं हैं । बीस बार हम भोजन न करते हों, लेकिन बीस बार आकांक्षा जरूर करते हैं। हमारी जो आकांक्षा है, नीरो ने उसे सत्य बना लिया; वास्तविक बना लिया था, इतना ही फर्क है। लेकिन बहुत लोग हैं जो चौबीस घण्टे भोजन का चिंतन कर रहे हैं। चिंतन भी भोजन करने जैसा ही है; क्योंकि चिंतन में भी जीवन, उतनी ही शक्ति, उतनी ही ऊर्जा नष्ट होती है। 423 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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