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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 श्रद्धा से पैरों में चलने की ताकत नहीं आयेगी। सिर्फ बाप हाथ पकड़े है तो लड़का शक्तिपूर्वक खड़ा हो जायेगा, क्योंकि वह सोचेगा कि जब हाथ पकड़े हैं तो मैं निश्चिंत हूं, गिरूंगा तो वह बचायेगा। और एक बार उसके पैर चलने लगे, बहुत जल्दी उसे अनुभव हो जायेगा कि बाप का हाथ मुझे नहीं चला रहा है, मेरे पैर चला रहे हैं। फिर लड़का खुद ही अपने हाथ को अलग करना चाहेगा, क्योंकि खुद पैरों पर खड़े होने का आनंद ही और है। लेकिन सदगुरु चाहता ही है कि जल्दी से जल्दी वह अपना हाथ छुड़ा ले। इसलिए सदगुरु पूरी कोशिश करता है कि शिष्य का हाथ छोड़ दे। असदगुरु शिष्य का हाथ जोर से पकड़ लेता है, असदगुरु इसलिए हाथ पकड़ लेता है कि उसको चलाये-शिष्य चले, इसमें उसका रस नहीं है। शिष्य उस पर निर्भर रहे, उसमें उसका रस है। __ इसलिए मां-बाप बन जाना बहुत आसान है, सब में मातृत्व और पितृत्व पाना बहुत कठिन है; क्योंकि मां-बाप तो पशु भी बन जाते हैं। उसमें कुछ बहुत बड़े गुण की जरूरत नहीं है। लेकिन फिर कब बच्चे को चलते वक्त छोड़ देना है, कब उसको अपने पैरों पर धक्का दे देना है, कब उसको मुक्त कर देना है निर्भरता से, इस कला को जानने का नाम ही मातृत्व और पितृत्व है। ठीक पिता वही है, जो जल्दी से जल्दी बच्चे को स्वतंत्र कर दे, मुक्त कर दे; उस जगह खड़ा कर दे, जहां वह खुद चल सकता है। लेकिन हमें भी मजा आता है कि कोई हम पर निर्भर हो। क्योंकि कोई निर्भर हो तो हमको लगता है कि हम भी कुछ हैं। मां-बाप को दुख होता है, जब बच्चा उनसे मुक्त होता है। मां पीड़ा पाती है, जब बच्चा अपने पैरों पर चलने लगता है। __ उसे पता नहीं है, साफ नहीं है। पहले तो वह बहुत खुश होती है कि बच्चा अपने पैरों चल रहा है। लेकिन उसे पता नहीं है। क्योंकि यह पैरों पर चलना तो प्राथमिक घटना है। अभी आगे और बहुत आयामों में बच्चा अपने पैरों पर चलेगा। कल तक वह अपनी मां की गोद में बैठ जाता था छिपके; जल्दी ही वह शर्म अनुभव करने लगेगा; वह मां की गोद में नहीं बैठना चाहेगा। वह मां के साथ सोता था रात; जल्दी ही वह अपना अलग बिस्तर मांग करेगा कि वह अलग सोना चाहता है । तब मां को पीड़ा शुरू हो जाएगी। इस जगत में मां के अतिरिक्त कोई भी स्त्री उसके लिए मूल्यवान नहीं थी, लेकिन शीघ्र ही कोई स्त्री उसके लिए मां से ज्यादा मूल्यवान हो जायेगी। मां की तरफ पीठ हो गयी। मां दिक्कत देनी शुरू करेगी। सास-बहुएं जो लड़ रही हैं; उसके पीछे यह मां की झंझट है। वह बेटा, जो उसका एक मात्र प्रेमी था, वह अचानक एक दूसरी स्त्री ने उसे छीन लिया। तो बह सास को निरंतर ही दुश्मन की तरह मालूम पड़ती है। वह कितना ही अपने को समझाये, उसे लगता है उसका बेटा छीन लिया गया। __ यह मां ठीक मां नहीं है । इसे मां होने की कला का पता नहीं है । इसे आनंदित होना चाहिए कि बेटा अब पूरी तरह मुक्त हो गया; परी तरह गर्भ के बाहर हो गया। अब दुसरी स्त्री महत्वपूर्ण हो गयी। बेटा अब स्वयं एक यूनिट, एक इकाई बन गया। अब वह खुद परिवार बना सकता है। मां से जुड़ा हुआ, उसके पल्ले को पकड़े हुए जो बेटा है, वह यूनिट नहीं है। शिष्य जब तक गुरु न हो जाये, तब तक गुरु को चैन नहीं है; क्योंकि जब तक वह गुरु न हो जाये, तब तक धर्म उसके आस-पास फैल नहीं सकता; तब तक उसका अपना परिवार निर्मित नहीं हो सकता । तो गुरु चाहेगा कि जल्दी शिष्य श्रद्धा से मुक्त हो । लेकिन श्रद्धा से वे ही मुक्त हो सकते हैं, जिन्होंने श्रद्धा की है। आप यह मत सोचना कि हम पहले से ही मुक्त हैं; झंझट में ही क्यों पड़ना कि पहले श्रद्धा में पड़ो और फिर मुक्त हो जाओ। जब मुक्त ही होना है, तो श्रद्धा ही क्यों करूं? तो आप श्रद्धा से कभी मुक्त न हो पायेंगे। ऐसा हो रहा है। जे. कृष्णमूर्ति को सुननेवालों को ऐसी भ्रांति पैदा होती है। जे. कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। वही गुरु का काम है कि वह व्यक्ति को श्रद्धा से मुक्त करे। लेकिन एक पहलू खोया हुआ है । और सुननेवाला बहुत प्रसन्न हो रहा है कि 414 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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