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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 सरकाया और आकर मुल्ला को दो-चार घूसे मारे । मुल्ला नशे में तो था ही, जमीन पर गिर पड़ा । वह आदमी उसकी छाती पर बैठ गया। मुल्ला सोचने लगा, और उसने उस आदमी से कहा, 'लगता है मैं जरा अपनी सीमा से आगे बढ़ गया-आइ रेकंन आइ हैव गान बियान्ड माई लिमिट-उतर भाई, देश तक ही हम दावा करते हैं; नीचे उतर, पृथ्वी का हम दावा ही छोड़ते हैं।' __ आपका अहंकार भी बढ़ता चला जाता है, जब तक कि आप उस जगह नहीं पहुंच जाते, जहां अड़चन हो जाती है, जहां उलझ जाते हैं। लेकिन पीछे हटना भी बहुत मुश्किल है। आगे बढ़ नहीं पाते; पीछे हटना बहुत पीड़ा देता है, चोट देता है-अटके रह जाते हैं। अनुभव में भी आने लगे कि सीमा से बढ़ गये तो भी मुल्ला नसरुद्दीन जैसी हालत में आप नहीं होते कि वापस इतनी बाहर सरलता से लौट जायें। दावे को मुकरना, छोड़ना बहुत कठिन हो जाता है। ___ हम सब दावों के साथ जी रहे हैं। अहंकार बाधा बनता है, क्योंकि हमने इतनी घोषणायें कर रखी हैं। हर आदमी ने अपने मन में सोच रखा है कि है ही नहीं पृथ्वी पर कोई जिसके सामने मैं झुकू । चाहे आपको पता हो चाहे न पता हो, ये मन की धारणा है। और आपका मन ऐसा सोचता है कि मुझसे श्रेष्ठ हो भी कोई कैसे सकता है! ऐसी धारणा से भरा हुआ अहंकार श्रद्धा को कैसे उपलब्ध होगा! श्रद्धा का अर्थ ही है इस बात की प्रतीति कि मुझसे महान की संभावना है। और यह संभावना आपको क्षुद्र नहीं बनाती, क्योंकि यह आपके भी महान होने का द्वार खोलती है। __ महावीर पर श्रद्धा आपके महावीर होने की संभावना बनेगी ही । अपने पर ही श्रद्धा से आप जो हैं, वही रह जायेंगे। जैसे बीज अपने पर ही भरोसा कर ले और आस-पास के वृक्षों को देखकर भी अनदेखा कर दे, तो फिर उसमें अंकुर कैसे फूटे! अंकुर फूटता है अज्ञात की उठान से, उमंग से। फिर, समर्पण-श्रद्धा एक तरह का विश्राम है। आपके चित्त में इतना कोलाहल है कि विश्राम कहां है? इसलिए जो लोग श्रद्धा को उपलब्ध हो जाते हैं, उनकी शांति देखने जैसी है। क्योंकि उन्हें फिर कोई अशांत नहीं कर सकता । असल में उन्होंने अशांति का कारण ही किसी और के हाथ में सौंप दिया। किसी और के चरणों में जाकर उन्होंने कह दिया कि सारा बोझ अब मैं छोड़ता हूं, अब 'तू' समझ। ऐसा सदा होनेवाला नहीं है, लेकिन प्राथमिक चरण में बड़ा बहुमूल्य है। धीरे-धीरे तो शिष्य गुरु से मुक्त हो जाता है। अगर गुरु से शिष्य मुक्त न हो पाये, तो गुरु सदगुरु नहीं था। गुरु की पूरी चेष्टा यह है कि शिष्य जल्दी-से-जल्दी उससे मुक्त हो जाये; अपनी यात्रा पर निकल जाये, जहां श्रद्धा की कोई जरूरत नहीं । क्योंकि सत्य का प्रकाश स्वयं आने लगता है। अपनी आंखों से देखने लगे; क्योंकि खों से कितना भी देखा जाये, तो भी धुंधला ही होगा। अपने पैरों से चलने लगे; क्योंकि मोक्ष तक कोई भी दूसरे के कंधों पर सवार होकर नहीं पहुंच सकता। लंगड़े-लूलों के लिए वहां कोई जगह नहीं है। लेकिन प्राथमिक चरण में किसी का सहारा बड़ा कीमती हो जाता है। वह सहारा वैसे ही है, जैसे एक दीये की निकटता से दूसरे दीये में ज्योति पकड़ जाती है, फिर तो दूसरा दीया अपनी यात्रा पर खुद चल पड़ता है। फिर तो पहला दीया बुझ भी जाए, तो भी दूसरे दीये को कोई बाधा नहीं आती। फिर पहला दीया खो भी जाए, तो भी दूसरा दीया अपनी यात्रा पर होता है। श्रद्धा प्राथमिक है—पहला स्पार्क, एक पहली चोट-जहां पहली अग्नि पैदा होती है, वहीं उपयोगी है। अंततः उसका कोई उपयोग नहीं, लेकिन प्रथम का बड़ा मूल्य है। चित्त बहुत ज्यादा वासना से ग्रस्त हो, तो हम विश्राम नहीं कर पाते । और जब तक विश्राम न कर पाये मन, तब तक हम इकट्ठे नहीं हो पाते। यह थोड़ा समझ लेना जरूरी है। ___ हम बंटे कटे रहते हैं। महावीर पर थोड़ी श्रद्धा भी होती है, थोड़ी अश्रद्धा भी होती है, थोड़ा उनके विपरीतवाला जो कह रहा है, उस पर भी थोड़ा भरोसा होता है; थोड़ा अपने पर भी भरोसा होता है। ऐसा खण्ड-खण्ड होते हैं। लेकिन श्रद्धा अखण्ड ही हो सकती है, 408 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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