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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 क्या ज्ञान देगा, जब बड़े-बड़े त्यागी, महात्यागी ज्ञान नहीं दे सके, तो यह भोगी मुझे क्या ज्ञान देगा!' लेकिन उसके गुरु ने कहा, 'हम हार गये। अब वही तुझसे जीत सकता है। तू वहीं चला जा।' ___ वह गया; जाकर देखा तो बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि जनक जमे थे, उनकी बैठक जमी थी। वहां पीना चल रहा था, भोजन चल रहा था, रास-रंग, नृत्य हो रहा था । उस संन्यासी ने कहा कि मैं भी कहां आ गया! भोगियों और पापियों के बीच! इस नर्क में मुझे किसलिए भेज दिया मेरे गुरु ने? लेकिन अब आ ही गया हूं, तो रात तो रुकना ही पड़ेगा। तो उसने सम्राट से कहा कि रात रुक जाऊं? आ तो गया। गलती तो हो गयी। पूछने कुछ आया था। अब नहीं पूछंगा । सुबह विदा हो जाऊंगा । सम्राट ने कहा कि कोई हर्ज नहीं, इतनी जल्दी निर्णय मत लो। सुबह सम्राट उसे लेकर नदी पर स्नान करने गया, और जब वे दोनों नदी में स्नान कर रहे थे, तो सम्राट के महल में आग लग गयी। भयंकर लपटें उठने लगीं। सारे गांव में कोलाहल मच गया। तो उस फकीर ने कहा कि, 'जनक, क्या देख रहे हो, मकान से आग की लपटें निकल रही हैं, मकान जल रहा है!' और वह यह कहकर संन्यासी भागा वहां से । सम्राट ने कहा कि, 'तू कहां जा रहा है?' उसने कहा, 'मैं अपनी लंगोटी घाट पर छोड़ आया है। अगर आग बढती आ गयी तो लंगोटी साफ हो जायेगी।' __ जनक ने कहा, 'महल जल रहा है; मैं नहीं जल रहा हूं, और अभी तेरी लंगोटी नहीं जल रही है, लेकिन तूने जलना शुरू कर दिया! अभी आग बहुत दूर है। जब पूरे गांव को पार करेगी, तब घाट तक आयेगी, लेकिन तू जल उठा और रखा क्या है? वहां एक लंगोटी रख आया है किनारे पर!' । लोलुपता का संबंध नहीं है कि किस चीज से जुड़े; किसी भी चीज से जुड़ सकती है। और अकसर ऐसा होता है कि धनी की लोलुपता तो फैली रहती है बहुत सी चीजों में; धन को छोड़कर जो भाग जाते हैं, उनकी लोलुपता इंटेन्स हो जाती है । थोड़ी-सी चीजें रहती हैं, सारी लोलुपता उन्हीं थोड़ी-सी चीजों पर लग जाती है। __ तो संन्यासी का मोह नष्ट नहीं होता, सिकुड़कर थोड़ी-सी चीजों पर लग जाता है। लेकिन वह मोह वहीं खड़ा है। धन छोड़ना शर्त नहीं है, धन को पकड़ने का जो आग्रह है भीतर, उसका छुट जाना...! यह कब होगा? यह कैसे होगा? धन को हम पकड़ना ही क्यों चाहते हैं? जब तक उसकी जड़ खयाल में न आये तब तक कटेगी भी नहीं। ___ धन को हम इसलिए पकड़ना चाहते हैं, क्योंकि हम अपने प्रति आश्वस्त नहीं हैं। हमें भय है, कल का भरोसा नहीं; बीमारी है, स्वास्थ्य है, मृत्यु है, आज मित्र हैं, कल मित्र न हों; आज घर है, कल घर न हो। और जिंदगी जीनी है तो आदमी धन पर भरोसा करता है। धन सुरक्षा है, सिक्युरिटी है। और जब तक आप असुरक्षित रहने को राजी नहीं हैं, तब तक आप लोलुपता के बाहर नहीं जा सकते। असुरक्षित, इनसिक्युरिटी में रहने को जो राजी है; जो कहता है, जो कल होगा, वह हम कल देखेंगे; जो आज हो रहा है, वह आज के लिए काफी है। यह क्षण पर्याप्त है। मैं किसी और क्षण की चिंता नहीं करूंगा। जो क्षण-जीवी है और जो कल चाहे मुसीबत हो, तो वह उसे झेलेगा, लेकिन कल ही झेलेगा; आज से तैयारी नहीं करेगा। ऐसा व्यक्ति अलोलुप हो सकता है और ऐसा व्यक्ति ही संन्यस्त हो सकता है। जो अलोलुप है...! आप अपनी लोलुपता को खोजें कहां है। भय में छिपी है, और मजा यह है कि आप कितना ही धन इकट्ठा कर लें, भय तो मिटता नहीं, बढ़ता ही चला जाता है। कितना ही इंतजाम कर लें, मृत्यु तो आयेगी ही, और कितनी ही व्यवस्था जुटा लें, रोग तो पकड़ेगा ही। मित्र खोयेंगे ही, पत्नी मरेगी, पति विदा होगा, दुख आयेगा । इस पृथ्वी पर कोई भी कभी सुरक्षित नहीं रहा। सुरक्षा इस पृथ्वी का नियम 374 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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