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________________ पांच समितियां और तीन गुप्तियां अब एक आदमी आपको कहता है कि 'तुम क्या हो, कुछ भी नहीं' -- आपको बिलकुल ठीक जंचेगा। यही बात अगर इसने पहले कही होती कि 'तुम क्या हो, कुछ भी नहीं; क्षुद्र, ना-कुछ— आप अकड़कर लड़ने खड़े हो गये होते। अगर आपका शरीर सिकुड़ रहा तो आप कहेंगे, 'बिलकुल ठीक कह रहे हो, ठीक ही कह रहे हो कि मैं बिलकुल क्षुद्र हूं।' और अगर आप ऐसा कह सकें कि 'मैं बिलकुल क्षुद्र हूं', तो शायद वह आदमी भी धारणा बदलने को मजबूर हो जाये; क्योंकि जो क्षुद्र है वह कभी स्वीकार नहीं करता कि क्षुद्र है; जो छोटा है वह कभी स्वीकार नहीं करता कि मैं छोटा हूं। जो अज्ञानी है, वह राजी नहीं होता कि मैं अज्ञानी हूं; वह कहता है, मैं ज्ञानी हूं। हम सदा विपरीत की घोषणा करते हैं । आप छोटे होते जायें, सिकुड़ते जायें शरीर के साथ-साथ, या मन को छोटा करें, सिकोड़ते जायें, मत फैलने दें - और आप पायेंगे कि धीरे-धीरे दुनिया दूसरी होने लगी; आपका आकार बदलने लगा और दुनिया की आकृति बदलने लगी । दुनिया तो यही की यही रहती है— अमुक्त को, मुक्त को — लेकिन मुक्त बदल जाता है, इसलिए संसार बदल जाता है। संसार ही मोक्ष हो जाता है, अगर आप भीतर मुक्त हैं। जैसे आप हैं, अगर भूल-चूक से कहीं मोक्ष में प्रवेश कर जायें, कोई रिश्वत दे दें कहीं, किसी गुरु-कृपा से कहीं मोक्ष में आप घुस जायें, तो आपको वहां संसार के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा । इसलिए मोक्ष में रिश्वत देकर जाने का कोई उपाय नहीं है। आप चले भी जायें तो आपको वहां संसार ही दिखाई पड़ेगा। आप वहां भी संसार निर्मित कर लेंगे । आप संसार हैं; आप मोक्ष हैं । पांच मिनिट रुकें । कीर्तन करें और फिर जायें । Jain Education International 311 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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