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________________ महावीर की उत्सुकता न तो काव्य में है, और न तर्क में। उनकी उत्सुकता है जीवन के तथ्य, जीवन की वैज्ञानिक खोज, आविष्कार में । इसलिए महावीर ने समाधि के कोई गीत नहीं गाये। और न ही महावीर ने जो कहा है उसके लिये कोई तर्क उपस्थित किये हैं। तर्क उपस्थित किये जा सकते हैं, हर बात के लिये । और ऐसी कोई भी बात नहीं, जिसके पक्ष में या विपक्ष में तर्क उपस्थित न किये जा सकें । तर्क दुधारी तलवार है। तर्क मंडन भी कर सकता है, खंडन भी। लेकिन तर्क से कोई सत्य की निष्पत्ति नहीं होती । काव्य अभिव्यक्ति है। जो अनुभव हुआ है, उसके आनंद की झलक उसमें मिल सकती है। लेकिन आनंद कैसे अनुभव हुआ है, उसका विज्ञान उससे निर्मित नहीं होता। अधिक शास्त्र तार्किक हैं, जिनको बुद्धि की खुजली है, उनके लिए उनमें रस हो सकता है। शेष शास्त्र काव्यात्मक हैं, जिन्हें अनुभव हुआ है, उन्हें उन शास्त्रों में अपनी अभिव्यक्ति मिल सकती है। बहुत थोड़े-से शास्त्र वैज्ञानिक हैं; उनके लिए जिन्हें न तो बुद्धि की खुजली की बीमारी है, और न जो पहुंच गये हैं। जो जीवन में उलझे हैं और मार्ग की तलाश कर रहे हैं 1 महावीर उस तीसरे कोण से ही बोल रहे हैं। मैंने सुना है, एक यहूदी पंडित की मृत्यु हुई। वह ईश्वर के सामने उपस्थित किया गया । ईश्वर ने उससे पूछा कि 'पृथ्वी पर तुम क्या कर रहे थे पूरे जीवन ?' तो उस पंडित ने कहा, 'मैं धर्म का, शास्त्र का, शास्त्र को सिद्ध करनेवाले तर्कों का अध्ययन कर रहा था।' ईश्वर 'मैं खुश हूं, मेरे आनंद के लिए तुम कोई तर्क, 'ईश्वर है', इसके प्रमाण में उपस्थित करो।' ने कहा, पंडित ने जीवनभर तर्क किये थे, लेकिन ईश्वर को सामने पाकर उसकी बुद्धि अड़चन में पड़ गई। क्या तर्क उपस्थित करे ईश्वर के होने का ? दो क्षण तो वह सोचता रहा, फिर कुछ सूझा नहीं, बुद्धि खाली मालूम पड़ी, तो उसने कहा कि बड़ी मुश्किल है - आपको बातों योग्य मैं कुछ कह सकूं, ऐसा खोज नहीं पाया, अच्छा तो यह हो कि खुद ही कोई तर्क उपस्थित करें—यू परफार्म सम प्वाइंट, ऐण्ड आई विल शो यू हाउ टु रिफ्यूट इट - आप ही कोई तर्क उपस्थित कर दें और मैं तरकीब बताऊंगा कि उसका खंडन कैसे किया जा सकता है। । ठीक से समझें तो तर्क सदा खंडनात्मक है, निषेधात्मक है। वस्तुतः बुद्धि का स्वभाव नकार है। इसे समझ लें, ठीक-से । बुद्धि का स्वभाव निगेटिव है, नकारात्मक है। जब बुद्धि कहती है नहीं— तभी होती है। और जब आप कहते हैं हां, तब बुद्धि विसर्जित हो जाती है, हृदय होता है। जब भी आपके भीतर 'हां' होती है, 'यस' होता है, तब हृदय होता है। और जब 'नहीं' होती है, 'नो' होता है, तब बुद्धि होती है। इसलिए जो व्यक्ति जीवन को पूरी तरह 'हां' कह सकता है, वह आस्तिक है; और जो व्यक्ति 'नहीं' पर जोर दिये चला जाता है, वह नास्तिक है। Jain Education International 273 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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