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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 जीवन के अनुभव में परखा हो, निरीक्षण किया हो, क्रोध करके देखा हो; आंख बंद करके ध्यान किया हो कि जहर फैल रहा है शरीर में, मन में धुआं उठ रहा है—मैं उसी हालत में हूं जिसमें मैं पहले था, या कि बेहोश हूं? मेरा मन धुंधला है या प्रखर और साफ है ? मेरे भीतर धुआं घिर गया है, सब चीजें अस्त-व्यस्त हो गई हैं, या चीजें सम्यक रूप से अपनी जगह पर हैं और मैं सुव्यवस्थित हूं ? मैं सम्यक हूं या असम्यक हो गया ? क्रोध करके क्रोध को अनुभव में-वह जो जाना है, अगर इसकी प्रतीति हो जाये, तो दर्शन शुरू हो जाता है। तब आप ऐसा नहीं कहेंगे कि शास्त्र कहते हैं कि क्रोध जहर है। आप कहेंगे कि मैं जानता हैं कि क्रोध जहर है, और जिस क्षण आप जानते हैं कि क्रोध जहर है उसी क्षण क्रोध करना असंभव होने लगेगा क्योंकि कौन जहर को जानकर पीता है ? कौन पत्थर को पत्थर जानकर रोटी की तरह खाता है? ___ ज्ञान क्रांति बन जाता है। लेकिन ज्ञान तभी क्रांति बनता है, जब समझ दर्शन में रूपांतरित होने लगे। तो जो सुना है सदगुरु से, जैसा महावीर ने कहा है कि सदगुरु के उपदेश से, जिस व्यक्ति में आपको लगा है कि कोई क्रांति घटी है, उसके पास जो सुना है, उसे अपने जीवन के अनुभव के साथ जोड़ने का नाम 'साधना' है। सुना, और वह सुना हुआ ही रह गया, कान का हिस्सा रह गया, व्यर्थ चला गया । व्यर्थ ही नहीं चला गया, हानिकर भी हो गया। क्योंकि अब आप बकवासी हो जायेंगे, आप उसको बोलने लगेंगे, आप दूसरों से कहने लगेंगे। हमारी हालत ऐसी ही है, जैसे कोई हमें बताये कि यहां हीरे की खदान है और हम चले जायें बाजार में और लोगों को समझायें कि जाओ, वहां हीरे की खदान है, और खुद भिक्षा मांगें। क्या कोई आपका भरोसा करेगा कि आपको हीरे की खदान का पता है ? और आप भिक्षा मांग रहे हैं और जो आपको दो पैसे दान दे देता है, उसको आप समझा रहे हैं कि तू जा, हीरे की खदान फलां जगह है, करोड़ों के हीरे वहां पड़े हैं। अगर आपको हीरे की खदान पता चलेगी, तो पहला काम यह करेंगे आप, कि किसी और को पता न चल जाये । पहली जरूरत यह हो जायेगी मन में कि यह किसी और को तो पता नहीं। और इसके पहले कि किसी और को पता चले, यह खदान खाली कर ली जाए न कि आप बाजार में लोगों को समझाते फिरेंगे? मुमुक्षु और जिज्ञासु में यही फर्क है । मुमुक्षु को जैसे ही पता चलता है कि यहां हीरा है, वह खोदने में लग जाता है। और जिस दिन स होता है और हीरे की चमक उसके जीवन में आ जाती है. उस दिन लोग उससे खद ही पछने लगते हैं कि क्या हो गया. क्या मिल गया? कौन-सा रस, कौन-सा नया द्वार, कौन-सा संगीत तुम्हारे जीवन में आ गया, जिसकी सुगंध, जिसकी ध्वनि दूसरे को भी छूती है। 'मुमुक्षु-आत्मा ज्ञान से पदार्थों को जानता है , दर्शन से श्रद्धान करता है।' और अनुभव जब तक न हो, तब तक श्रद्धा नहीं होती। लोग कहे जाते हैं, 'श्रद्धा करो', लेकिन श्रद्धा कैसे हो सकती है जब तक अपना अनुभव न हो। कोई कहता है कि 'शक्कर मीठी है', सुनकर कैसे श्रद्धा हो? और जानकर कैसे अश्रद्धा होगी? जिस दिन शक्कर कोई मुंह में रख देगा और मीठे का अनुभव होगा, श्रद्धा हो जायेगी । मुंह में मीठे का अनुभव हो रहा हो, तो फिर आपसे कोई नहीं कहेगा कि 'श्रद्धा करो' कि 'शक्कर मीठी है'। समझ दर्शन बने, अनुभव बने, तो अनुभव श्रद्धा बन जाती है। दुनिया में श्रद्धा की कमी नहीं है, दुनिया में मुमुक्षा की कमी है। लोग जिज्ञासु हैं। और इस जिज्ञासा को बढ़ाने में शिक्षा ने बड़ा साथ दिया है , क्योंकि हमारा पूरा शिक्षाशास्त्र जिज्ञासा पर खड़ा है, मुमुक्षा पर नहीं । यही पूरब और पश्चिम की शिक्षा व्यवस्था का भेद है। 232 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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