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________________ समय और मृत्यु का अंतर्बोध उसने बुद्ध से जाकर पूछा कि कृपा करें, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। ये पैर के लक्षण सम्राट के हैं, चक्रवर्ती सम्राट के । और आप यहां भिखारी होकर बैठे हुए हैं। क्या करूं, पोथियों को डुबा दूं पानी में? बुद्ध ने कहा, पोथियों को डुबाने की जरूरत नहीं, क्योंकि मेरे जैसा आदमी दुबारा तुम्हें जल्दी नहीं मिलेगा । होना चाहिए था चक्रवर्ती सम्राट ही । ज्योतिष तुम्हारा ठीक ही कहता है। लेकिन एक और जगत है अध्यात्म का, जो ज्योतिष के पार चला जाता है । पर तुम्हें ऐसा बार-बार नहीं होगा, तुम बहुत चिंता में मत पड़ो। ऐसा जल्दी फिर दुबारा नहीं होगा। चक्रवर्ती सम्राट ही होने को पैदा हुआ था, लेकिन उससे और ज्यादा होने का द्वार खुल गया। तो भिखारी मैं नहीं हूं, सम्राट भी मैं नहीं हूं। __ तब आश्वस्त हुआ ज्योतिषी । उसने गौर से-चिंता छोड़ी-बुद्ध के चेहरे को देखा । वहां जो आभा थी, वहां जो गरिमा थी, वहां जो प्रकाश की किरणें फूट रही थीं.... उसने पूछा, क्या आप देवता हैं? मुझसे भूल हो गयी, मुझे क्षमा कर दें। बुद्ध ने कहा, मैं देवता भी नहीं हूं। __ तो ज्योतिषी पूछता जाता है कि आप यह हैं, आप यह हैं, आप यह हैं। बुद्ध कहते जाते हैं, मैं यह भी नहीं, मैं यह भी नहीं, मैं यह भी नहीं । तब ज्योतिषी पूछता है, फिर आप हैं क्या? न आप पशु हैं, न आप पक्षी हैं, न आप पौधा हैं, न आप मनुष्य हैं, न आप देवता हैं, तो आप हैं क्या? बुद्ध कहते हैं, मैं बुद्ध हूं। तो वह ज्योतिषी पूछता है, बुद्ध होने का क्या अर्थ? तो बुद्ध कहते हैं, जो भी परिधियां हो सकती थीं आदमी की, देवता की, पशु की, वे सब मन के खेल थे। मैं उनके पार हूं। मैंने उसे पा लिया है जो उस मन के भीतर छिपा था। अब मैं मन नहीं हूं। पशु भी मन के कारण पशु है। और आदमी भी मन के कारण मनुष्य है। पौधा भी मन के कारण पौधा है। आप जो भी हैं, अपने मन के कारण हैं। जिस दिन आप मन को छोड़ देंगे उस दिन आप वह हो जायेंगे जो आप अकारण हैं। वह अकारण होना ही हमारा ब्रह्मत्व है, वह अकारण होना ही हमारा परमात्म है। कारण से हम संसार में है, अकारण से हम परमात्मा में हो जाते हैं । कारण से हमारी देह निर्मित होती है, मन निर्मित होता है । अकारण हमारा अस्तित्व है। वह है, उसका कोई कारण नहीं है। बुद्धत्व अवस्था नहीं है, अवस्थाओं के पार हो जाना है। अब हम सूत्र लें। 'आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोहनिद्रा में सोये हुए संसारी मनुष्यों के बीच रहकर भी सभी तरह से जागरूक रहना चाहिए और किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए।' 'काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल । यह जानकर भारंड पक्षी की भांति अप्रमत्त भाव से विचरना चाहिए।' बहुत सी बातें समझने की हैं। महावीर अकेला पंडित नहीं कहते, आशुप्रज्ञ पंडित । तो पहले तो इस बात को हम समझ लें। पंडित का अर्थ होता है, जानने वाला, जानकारी वाला, जिसके पास सूचनाओं का बहुत संग्रह है, लर्नेड । शास्त्र का जिसे पता है, सिद्धांत का जिसे पता है, प्राणियों का जिसे बोध है, तर्क में जो निष्णात है, ऐसा व्यक्ति पंडित है। जानकारियां जिसके पास हैं । आशुप्रज्ञ पंडित का अर्थ है-जानकारियां ही जिसके पास नहीं हैं, ज्ञान भी जिसके पास है। आशुप्रज्ञ शब्द का अर्थ होता है, ऐसे प्रश्न का उत्तर भी जो दे सकेगा, जिस प्रश्न के उत्तर की कोई जानकारी उसके पास नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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