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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 जिस मछली को सागर में पता चल जाये, वह संतत्व को उपलब्ध हो गयी कि सागर है । जिस आदमी को आदमियत खोये बिना, अवसर खोये बिना, पता चल जाये, उसके जीवन में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है। महावीर हैं, बुद्ध हैं, कृष्ण हैं-उनकी सारी चेष्टा यही है कि हमें पता चल जाये तभी, जबकि अवसर शेष है। तो शायद हम अवसर का उपयोग कर लें। तो शायद अवसर को हम स्वर्णिम बना लें। शायद अवसर हमारे जीवन को और वहत्तर परम जीवन में ले जाने का मार्ग बन जाये। अगर पता भी उस दिन चला जब हाथ से सब छूट चुकता है तो उस पता चलने की कोई सार्थकता नहीं है, मगर यह मन का नियम है, मन को अभाव का पता चलता है। गरीब आदमी को पता चलता है धन का, अमीर आदमी को धन का पता नहीं चलता। जो नहीं है हमारे पास वह दिखायी पड़ता है, जो है वह हम भूल जाते हैं। ___ इसलिए जो-जो आपको मिलता चला जाता है, आप भूलते चले जाते हैं और जो नहीं मिला होता, उस पर आंख अटकी रहती है। यह सामान्य मन का लक्षण है। इस लक्षण को बदल लेना साधना है। जो है, उसका पता चले तो बड़ी क्रांति घटित होती है। अगर जो नहीं है, उसका पता चले तो आपके जीवन में सिर्फ असंतोष के अतिरिक्त कुछ भी न होगा। जो है, उसका पता चले तो जीवन में परम तृप्ति छा जायेगी। जो नहीं है, उसका ही पता चले तो अकसर अवसर जब खो जायेगा तब आपको पता चलेगा। जो है, उसका पता चले तो जो अवसर अभी मौजूद है, उसका आपको पता चलेगा; और अवसर आने के पहले, अवसर आते ही बोध हो जाये, तो हम अवसर को जी लेते हैं, अन्यथा चूक जाते हैं। इसलिए ध्यान, जो है, उसको देखने की कला है। और मन, जो नहीं है, उसकी वासना करने की विधि है। श्रवण करने की कला क्या है? सुनने की कला क्या है? निश्चित ही कला है, और महावीर ने कहा है, धर्म-श्रवण, दुर्लभ चार चीजों में एक है। तो बहुत सोच कर कहा है। श्रवण की कला-सुनते तो हम सब हैं। कला की क्या बात है? हम तो पैदा ही होते हैं कान लिए हुए, सुनना हमें आता ही है। नहीं, लेकिन हम सुनते नहीं हैं, सुनने के लिए कुछ अनिवार्य शर्ते हैं। पहली-जब आप सुन रहे हों तब आपके भीतर विचार न हों। अगर विचार की भीड़ भीतर है तो आप सुनेंगे वह वही नहीं होगा, जो कहा गया है। आपके विचार उसे बदल देंगे, रूपांतरित कर देंगे। उसकी शक्ल और हो जायेगी। विचार हट जाने चाहिए बीच से । मन खाली हो, शून्य हो और सुने, तभी जो कहा गया है, वह आप सनेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप उस पर विचार न करें। लेकिन विचार तो सुनने के बाद ही हो सकता है। सुनने के साथ ही विचार नहीं हो सकता। जो सुनने के साथ ही विचार कर रहा है वह विचार ही कर रहा है, सुन नहीं रहा है। सुनते समय सुनें, सुन लें पूरा, समझ लें क्या कहा गया है, फिर खूब विचार कर लें। लेकिन विचार और सुनने को जो साथ में मिश्रित कर देता है, वह बहरा हो जाता है। वह फिर अपने ही विचारों की प्रतिध्वनि सुनता है। फिर वह नहीं सुनता जो कहा गया है, वही सुन लेता है, जो उसके विचार उसे सुनने देते हैं। ___ अपने को अलग कर देना सुनने की कला है। जब सुन रहे हैं, तब सिर्फ सुनें । और जब विचार रहे हैं, तो सिर्फ विचारें । एक क्रिया को एक समय में करना ही उस क्रिया को शुद्ध करने कि विधि है। लेकिन हम हजार काम एक साथ करते रहते हैं। अगर मैं आपसे कुछ कह रहा हूं तो आप उसे सुन भी रहे हैं, आप उस पर सोच भी रहे हैं, उस संबंध में आपने जो पहले सुना है, उसके साथ तुलना भी कर रहे हैं। अगर आपको नहीं जंच रहा है. तो विरोध भी कर रहे हैं: अगर जंच रहा है, तो प्रशंसा भी कर रहे हैं। यह सब साथ चल रहा है। इतनी पर्ते अगर साथ चल रही हैं तो आप सुनने से चूक जायेंगे। फिर आपको राइट लिसनिंग, सम्यक श्रवण की कला नहीं आती। महावीर ने तो श्रवण की कला को इतना मूल्य दिया है कि अपने चार घाटों में, जिनसे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंच सकता है, श्रावक को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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