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आत्म-सूत्र : 2
जस्सेवमप्पा उ हवेज निच्छिओ, चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं।। तं तारिसं नो पइलेन्ति इन्दिया, उविंतिवाया व सुदंसणं गिरि।।
सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चई नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरन्ति महेसिणो।।
जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढ़-निश्चयी हो कि देह भले ही चली जाये, पर मैं अपना धर्म-शासन नहीं छोड़ सकता, उसे इन्द्रियां कभी भी विचलित नहीं कर सकतीं। जैसे भीषण बवंडर सुमेरु पर्वत को विचलित नहीं कर सकता। शरीर को नाव कहा गया है और जीव को नाविक तथा संसार को समुद्र । इसी संसार समुद्र को महर्षिजन पार कर जाते हैं।
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