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________________ आप ही हैं अपने परम मित्र जो अपना ही मित्र नहीं है, वह किसी का भी मित्र नहीं हो सकता। __महावीर कहते हैं, खुद पहले आनन्द को उपलब्ध हो जाओ, यह काफी है। खुद ज्योतिर्मय हो जाओ, प्रकाशित हो जाओ, तभी सोचना कि किसी दूसरे के घर में भी प्रकाश डाल दें। खुद का दीया बुझा हुआ, दूसरों के दीये जलाने चल पड़ते हैं। उस झगड़े में अकसर ऐसा होता है कि दूसरे का भी जल रहा हो थोड़ा बहुत तो बुझा आते हैं। क्योंकि अपने वुझे दीये को जो जला हुआ मानता है, जब तक आपका न बुझा दे, तब तक उसको भी जला हुआ नहीं मानेगा। जब बुझ जाता है, तब वह कहता है, जला दिया। अब निश्चिंत हुए। हम सब एक दूसरे को बुझाने की कोशिश में लगे हैं। खुद बुझे हुए हैं। यही होगा, और कुछ हो भी नहीं सकता। ____ 'पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जेय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए। एक आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है।' ___ यह एक मित्र हो जाये, जो भीतर छिपा है मेरे । इस एक से ही ताल-मेल बन जाये, इस एक से ही प्रेम हो जाये, यह एक ही मैं जीत लं, तो महावीर कहते हैं; सब जीत लिया। इस एक को जीत लेने को महावीर कहते हैं-सब जीत लिया। सारा संसार जीत लिया मगर दुर्जेय है बहुत। कहते हैं, क्रोध, मान, मोह, लोभ-ये कठिन हैं, इनको जीतना । लेकिन और भी कठिन है स्वयं को जीतना । क्या कठिनाई होगी स्वयं को जीतने की? स्वयं को जीतने की कठिनाई सूक्ष्म है । क्रोध को जीतने की कठिनाई स्थूल है, ग्रास है। हम भी समझते हैं कि क्रोध को जीतना चाहिए। जो क्रोधी है, वह भी मानता है कि क्रोध को जीतना चाहिए। जो लोभी है, वह भी मानता है कि लोभ को जीतना चाहिए, क्योंकि लोभ से दुख मिलता है, इसलिए कोई भी जीतना चाहता है । क्रोध से दुख मिलता है-क्रोधी को भी मिलता है। वह भी मानता है कि गलती है हमारी, कष्ट पाते हैं, और जीतना चाहिए, और महावीर ठीक कहते हैं। __महावीर ठीक कहते हैं कि इसका कुल कारण इतना है कि वह क्रोध से दुख पाता है। क्रोध को जीतने में उसका जो रस है वह दुख को जीतने में है। लोभ से भी दुख पाता है, इसलिए कहता है कि ठीक कहते हैं महावीर । दुख जीतना चाहिए। लोभ में दुख है, लेकिन रस उसका दुख जीतने में है। __ फिर यह स्वयं को जीतना अति कठिन क्यों है? महावीर कहते हैं, दुर्जेय । क्योंकि आपको खयाल ही नहीं है कि आपने स्वयं से कभी दुख पाया, यही सूक्ष्मता है । जिस-जिस से दुख पाया, उसको तो हम जीतना चाहते हैं । न जीत पाते हों, कमजोरी है। लेकिन आपको यह खयाल में ही नहीं है, स्मरण ही नहीं है कि आपने अपने से दख पाया है। हालांकि सब दख आपने अपने से पाया। ___ इसलिए स्वयं को जीतने का कोई सवाल ही नहीं उठता। हम सोचते हैं, स्वयं से तो हमने कभी दुख पाया नहीं, दूसरे से दुख पाया है। दुश्मन को जीतना चाहिए; जो दुख देता हो, उसको सफाया कर देना चाहिए। __ अपने से हमने कभी दुख पाया नहीं, यद्यपि पाया सदा अपने से है। तो फिर तरकीब है हमारे मन की एक कि दुख पाते हैं अपने से, आरोपित करते हैं सदा दूसरों पर । दूसरे को सदा शत्रु बना लेते हैं, ताकि खुद को शत्रु न बनाना पड़े। और दूसरे को मिटाने में लग जाते हैं। यह सारी दृष्टि बदले, तो ही व्यक्ति धार्मिक होता है । हटा लें दूसरों पर, जहां-जहां आपने फैलाव किया है, जहां-जहां आपने अड्डे बना रखे हैं दुखों के–हटा लें वहां से। दुख का घाव भीतर है। वह आप ही हैं दुख । वहां लौट आयें । और जब भी दुख मिले, तो जिसने दुख दिया है उसको भूल जायें। जिसको दुख मिलता है, उसी को देखें। जिसको दुख मिलता है, वही दुख का कारण है। जो दुख देता है, वह दुख का कारण नहीं है। 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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