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________________ आप ही हैं अपने परम मित्र तो जब कल इतना दूर हो जाता है, तो पिछला जन्म तो बहुर दूर है। हुआ कि नहीं हुआ, बराबर है; किसी और का। बड़े मजे से कह सकते हैं कि पिछले जन्म में पापी था । पाप किये, इसलिए दुख भोग रहा हूं। लेकिन अभी? अभी बिलकुल ठीक हूं। फिर भी दुख भोग रहा हूं, दूसरों के कारण, दूसरे जन्मों के कारण; लेकिन दूसरा शब्द महत्वपूर्ण है। चाहे वह जन्म हों, चाहे लोग हों । जो व्यक्ति इस भाषा में सोच रहा है वह महावीर के सूत्र को नहीं समझा अभी । महावीर कहते हैं, दुख भोग रहे हो तो तुम अभी अपने शत्रु हो। उसी शत्रुता के कारण हम दुख भोग रहे हैं। दुख लाक्षणिक है, तुम्हारी शत्रुता का अपने साथ । कल एक मित्र आये थे, वे जैन संन्यासी साधुओं की तरफ से खबर लाये थे, कुछ साधुओं की तरफ से कि वह वहां से छूटना चाहते हैं, उस जंजाल से । मैंने कहा, जंजाल ! वे छूटना चाहते हैं, लेकिन हिम्मत भी नहीं है छूटने की । क्योंकि जब संन्यास लिया था तो बड़ा स्वागत समारंभ हुआ था, और जब छोड़ेंगे तो अपमान होगा, निंदा होगी। लोग कहेंगे, पतन हो गया । इसलिए हिम्मत भी नहीं है, लेकिन वहां बड़ा दुख पा रहे हैं । तो उन्होंने आपके पास खबर भेजी है कि अगर आप कोई उनका इंतजाम करवा दें तो वहां से निकल आयें । मैंने कहा, क्या इन्तजाम चाहते हैं? इन्तजाम के लिए ही वहां भी गये थे। अगर साधुता के लिए गये होते तो वहां भी साधुता खिल जाती । इन्तजाम के लिए वहां भी गये थे । और इन्तजाम साधु का बढ़िया है। संन्यासी का संसारी से ज्यादा अच्छा इन्तजाम है। कुछ शर्तें उसको पूरी करना पड़ती हैं। तो हजार शर्तें, संसारी को भी पूरी करनी पड़ती हैं। लेकिन उसका इन्तजाम बढ़िया है। और संसारी को तो हजार तरह की योग्यताएं होनी चाहिए, तब थोड़ा बहुत इन्तजाम कर पाता है । साधु के लिए एक ही योग्यता काफी है कि उन्होंने संसार छोड़ दिया। बाकी सब तरह की अयोग्यता चलेगी । मुझे साधु मिलते हैं, वे कहते हैं कि आपकी बात ठीक लगती है और हम इस उपद्रव को छोड़ना चाहते हैं; लेकिन अभी जो हमारे पैर छूते हैं, कल वे हमें चपरासी की भी नौकरी देने को तैयार न होंगे। और वे ठीक कहते हैं, ईमानदारी की बात है। देखें अपने साधुओं की तरफ, अगर कल ये साधारण कपड़े पहनकर आपके द्वार पर आ जायें और कहें कि कोई काम वगैरह दे दें, तो आप उनको काम देनेवाले नहीं हैं। पूछेंगे कि सर्टिफिकेट लाओ। पिछली जगह कहां काम करते थे, वहां से कैसे छोड़ा ? पुलिस स्टेशन में तो नाम नहीं है! लेकिन इन्हीं साधु के चरण छूने जाते हैं तब इन सबकी इन्क्वायरी की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि चरण छूने का खर्चा ही नहीं, न कुछ आपको झंझट, न कुछ । पांव छूये, अपने रास्ते पर गये। कुछ लेना-देना नहीं है। जो लोग संसार से भागते हैं बिना संसार को समझे वे भोग के विपरीत त्याग में पड़ जाते हैं। भोग के विपरीत जो त्याग है, वह त्याग नहीं है, वह भी शत्रुता है । भोग के ऊपर जो त्याग है—भोग के विपरीत नहीं, भोग के पार जो त्याग है, भोग को छोड़ना नहीं पड़ता और त्याग को ग्रहण नहीं करना पड़ता । भोग समझपूर्वक गिरता जाता है और त्याग खिलता जाता है - भोग के पार, बियान्ड । भोग के विपरीत, अपोजिट नहीं । उसी तल पर नहीं, उस तल के पार । भोग की समझ से जो त्याग निकलता है, भोग के दुख से जो त्याग निकलता है, इनमें फर्क है। T भोग के दुख से जो त्याग निकलता है वह फिर दुख हो जाता है। दुख से दुख ही निकल सकता है। भोग की समझ और भोग में क्यों दुख पाया? भोग के कारण नहीं, दूसरे के कारण दुख पाया, यह जब खयाल आता है तो आदमी भोग के पार हो जाता है। महावीर कहते हैं, जो इस तरह का आदमी है वह अपना मित्र है। साधु को महावीर अपना मित्र कहते हैं, असाधु को शत्रु । लेकिन परीक्षण क्या है कि आप अपने मित्र हैं? मित्र का क्या परीक्षण है? जिससे सुख मिले, वह मित्र है और जिससे दुख मिले वह शत्रु है। अगर आपको अपने से ही सुख नहीं मिल रहा है तो आप शत्रु हैं। अपने से ही आपको सुख मिलने लगे तो आप मित्र हैं। लेकिन आपको कोई ऐसी बात पता है, जब आपको अपने से सुख मिला Jain Education International 153 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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