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महावीर-वाणी भाग : 2
विध्वंसक हैं।
तो जो संकल्प कर रहा है, उसे समर्पण को भी संकल्प के कार्य में लगा देना चाहिए । हजार मौके आयेंगे जब संकल्प का उपयोग समर्पण के साथ हो सकता है। जैसे एक आदमी ने संकल्प किया कि मैं चौबीस घंटे खड़ा रहूंगा । तो अब संकल्प के प्रति पूरा समर्पित हो जाना चाहिए, अब चौबीस घंटे में एक बार भी सवाल नहीं उठाना चाहिए कि मैंने यह क्या किया, करना था कि नहीं करना था । अब पूरा समर्पित हो जाना चाहिए। अपने ही संकल्प के प्रति अपना पूरा समर्पण कर देना चाहिए । अब चौबीस घंटे यह सवाल नहीं है।
एक आदमी ने संकल्प किया कि किसी के चरण पकड़ लिये, यही आसरा है, तो फिर अब बीच-बीच में सवाल नहीं उठाने चाहिए संकल्प से कि मैंने ठीक किया कि नहीं ठीक किया, कि यह मैं क्या कर रहा हूं। अब सारे संकल्प को इसी समर्पण में डुबा देना चाहिए। तो मेरे भीतर कोई अनियोजित हिस्सा नहीं बचे, तो मैं साधक हूं। अगर अनियोजित हिस्सा बच जाये तो मैं संदेह से घिरा रहूंगा, और अपने को ही अपने ही हाथ से काटता रहूंगा। खुद की विपरीत जाती शक्ति व्यक्ति को दीन कर देती है। खुद की सारी शक्तियां समाहित हो जायें तो व्यक्ति को शक्तिशाली बना देती हैं।
तो जब मैंने कहा. संकल्प और समर्पण के मार्गों का ताल-मेल मत करना. तो मेरा मतलब यह नहीं है कि आप अपने भीतर की शक्तियों का ताल-मेल मत करना । संकल्प के मार्ग पर चलें तो समर्पण के मार्ग की जो विधियां हैं, उनका उपयोग मत करना । आपके भीतर जो समर्पण की क्षमता है, उसका तो जरूर उपयोग करना । जब समर्पण के मार्ग पर चलें तो संकल्प की जो विधियां हैं, वे फिर आपके लिए नहीं रहीं। लेकिन आपके भीतर जो संकल्प की क्षमता है, उसका पूरा उपयोग करना। मैं समझता हूं, मेरी बात आपको साफ हई होगी।
जैसे कि एक आदमी एलोपैथिक दवाएं लेता है, एक आदमी होम्योपैथिक दवाएं लेता है या एक आदमी नेचरोपैथी का इलाज करता है। पैथीज को मिलाना मत । ऐसा मत करना कि एलोपैथी की भी दवा ले रहे हैं, होम्योपैथी की भी दवा ले रहे हैं और नेचरोपैथी भी चला रहे हैं। इसमें बीमारी से शायद ही मरें, पैथीज से मर जायेंगे। बीमारी से बचना आसान है, लेकिन अगर कई पैथी का उपयोग कर रहे हैं तो मरना सुनिश्चित है। जब एलोपैथी ले रहे हों, तो फिर शुद्ध एलोपैथी लेना, फिर बीच में दूसरी चीजों को बाधा मत डालना । जब होम्योपैथी ले रहे हों तो पूरी होम्योपैथी लेना, दूसरी चीज को बाधा मत डालना।
लेकिन चाहे एलोपैथी लें. चाहे होम्योपैथी लें. चाहे नेचरोपैथी लें, भीतर वह जो क्षमता है ठीक होने की, उसका पूरा उपयोग करना। वह एलोपैथी के साथ जुड़े कि होम्योपैथी के साथ, कि नेचरोपैथी के साथ, यह अलग बात है, लेकिन भीतर वह जो ठीक होने की क्षमता है, उसका पूरा उपयोग करना।
आप कहेंगे, वह तो हम करते ही हैं। जरूरी नहीं है। कुछ लोग ऊपर से दवा लेते रहते हैं और भीतर बीमार रहना चाहते हैं, तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। अगर बीमारी आपकी तरकीब है, तो दवा आपको ठीक नहीं कर पायेगी। आप कहेंगे, कौन आदमी बीमार रहना चाहता है? आप गलती में हैं। फिर आपको मनुष्य के मन का कोई भी पता नहीं है। __ मनसविद कहते हैं कि सौ में से पचास प्रतिशत बीमारियां बीमारों के आह्वान हैं, वे उन्होंने बुलायी हैं । बचपन से बीमारी का सिखावन हो जाता है । बच्चा अगर स्वस्थ है, घर में कोई ध्यान नहीं देता है। बच्चा अगर बीमार है, सारे घर का केन्द्र हो जाता है । बच्चा समझ लेता है एक बात कि जब भी केन्द्र होना हो, बीमार हो जाना जरूरी है। और बच्चा ही नहीं सीख लेता, आपके भीतर छिपा है वह बच्चा। आपको भी खयाल होगा. पत्नी पति को देखकर कल्हने लगती है. पहले नहीं कल्ह रही थी। पति पत्नी को देखकर एकदम सिर पर हाथ रखकर लेट जाता है। अभी बिलकुल ठीक
था।
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