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________________ पहले कुछ प्रश्न । एक मित्र ने पूछा है कि संकल्प और समर्पण के मार्गों को न मिलाया जाये, ताल-मेल न बिठाया जाये, ऐसा आपने कहा । लेकिन, महावीर वाणी की चर्चा जिससे शुरू हुई उस नमोकार मन्त्र के शरण-सूत्र में समर्पण का स्थान है। और आप भी जिस भांति ध्यान के प्रयोग करवाते हैं, उसमें संकल्प से शुरुआत होती है और चौथे चरण में समर्पण पर समाप्ति। तो इन दोनों में कोई ताल-मेल है या नहीं? संकल्प और समर्पण में तो कोई ताल-मेल नहीं है साधना की पद्धतियों में; समर्पण की अपनी पूरी पद्धति है, संकल्प की अपनी पूरी पद्धति है । लेकिन मनुष्य के भीतर ताल-मेल है। इसे थोड़ा समझना पड़े। ऐसा मनुष्य खोजना मुश्किल है जो पूरा संकल्पवान हो। ऐसा मनुष्य भी खोजना मुश्किल है, जो पूरा समर्पण की तैयारी में हो । मनुष्य तो दोनों का जोड़ है। एम्फेसिस का फर्क हो सकता है। एक व्यक्ति में संकल्प ज्यादा है, समर्पण कम, एक व्यक्ति में समर्पण ज्यादा, संकल्प कम ! इसे हम ऐसा समझें । जैसा मैंने कहा कि समर्पण स्त्रैण चित्त का लक्षण है, संकल्प पुरुष चित्त का । लेकिन मनसविद कहते हैं कि कोई पुरुष पूरा पुरुष नहीं, कोई स्त्री पूरी स्त्री नहीं । आधुनिकतम खोजें कहती हैं कि हर मनुष्य के भीतर दोनों हैं। पुरुष के भीतर छिपी हुई स्त्री है, स्त्री के भीतर छिपा हुआ पुरुष है। जो फर्क है स्त्री और पुरुष में, वह प्रबलता का फर्क है, एम्फैसिस का फर्क है। इसलिए पुरुष स्त्री में आकर्षित होता है, स्त्री पुरुष में आकर्षित होती है। कार्ल गुस्ताव जुंग का महत्वपूर्ण दान इस सदी के विचार को है। उनकी अन्यतम खोजों में जो महत्वपूर्ण खोज है, वह है कि प्रत्येक पुरुष उस स्त्री को खोज रहा है, जो उसके भीतर ही छिपी है, और प्रत्येक स्त्री उस पुरुष को खोज रही है, जो उसके भीतर ही छिपा है। और इसलिए यह खोज कभी पूरी नहीं हो पाती । जब आप किसी को पसन्द करते हैं तो आपको पता नहीं कि पसंदगी का एक ही अर्थ होता है कि आपके भीतर जो स्त्री छिपी है या पुरुष छिपा है, उससे कोई पुरुष या स्त्री बाहर मेल खा रही है; इसलिए आप पसन्द करते हैं। लेकिन वह मेल पूरा कभी नहीं हो पाता, क्योंकि आपके भीतर जो प्रतिमा छिपी है, वैसी प्रतिमा बाहर खोजनी असम्भव है । इसलिए कभी थोड़ा मेल बैठता है, लेकिन फिर मेल टूट जाता है। या कभी थोड़ा मेल बैठता है, थोड़ा नहीं भी बैठता है। इसी के बीच बाहर सब चुनाव है। लेकिन चुनाव की विधि क्या Jain Education International 141 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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