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________________ महावीर वाणी भाग : 2 मीरा समर्पण करेगी, 'मैं' खो जायेगा। महावीर शुद्ध करेंगे, शून्य करेंगे और 'मैं' खो जायेगा। लेकिन महावीर श्रम करेंगे, मीरा समर्पण करेगी। इसलिए महावीर और बुद्ध संस्कृति को हम कहते हैं, 'श्रमण संस्कृति' । श्रम पर उनका जोर है, पुरुषार्थ पर उनका बल है, कुछ करो। इसलिए महावीर कहते हैं, मैं श्रम करूंगा अपने साथ और जो भी परिणाम होगा - नरक होगा तो भी जानूंगा कि मेरे द्वारा, और मोक्ष होगा तो भी जानूंगा कि मेरे द्वारा । लेकिन किसी और पर जिम्मेवारी नहीं रखूगा। ___ यह पुरुष चित्त का लक्षण है कि वह किसी और पर जिम्मेवारी नहीं रखेगा। आप कहां हैं, इसे सोच लेना चाहिए। क्या आप पुरुष हैं, क्या आप स्त्री हैं? चित्त की दृष्टि से, शरीर की दृष्टि से नहीं। आपका भाव भीतर समर्पण करने का है या संकल्प को सम्भाले रखने का है? तो एक बात तय कर लें, दोनों के बीच मत दौड़ना। क्योंकि नपंसक के लिए कोई भी जगह नहीं है। वे जो समझौतेवाले हैं. वे अकसर नपंसक पैदा कर देते हैं। वे जो समन्वयवादी हैं. जो कहते हैं, दोनों में थोड़ा ताल-मेल कर लो, थोड़ा मीरा का भी लो, थोड़ा महावीर का भी लो, थोड़ा कुरान का भी, थोड़ा गीता का भी-अल्ला ईश्वर तेरे नाम, दोनों को जोड़ो, फिर उनको मिलाकर चलो-इस तरह के लोग सारे मार्गों को भ्रष्ट कर देते हैं। __हर मार्ग की अपनी शुद्धता है, प्योरिटी है । और बड़े से बड़ा अन्याय जो हम कर सकते हैं, वह किसी मार्ग की शुद्धता को नष्ट करना है। हर मार्ग पूरा है। पूरे का अर्थ यह है कि उससे मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। दूसरे मार्ग की कोई भी जरूरत नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि दसरे मार्ग से नहीं पहुंचा जा सकता। दसरा मार्ग भी इतना ही परा है, उससे भी पहंचा जा सकता है। आप मार्गों को मिलाने की बजाय यही सोचना कि आप कहां खड़े हैं। कहां से आपके लिए निकटतम मार्ग मिल सकता है। फिर दूसरे की भूलकर मत सुनना। क्योंकि हम बड़े अजीब लोग हैं। हम इसकी फिक्र ही नहीं करते कि कौन कहां खड़ा है। एक मित्र हैं। उनकी पत्नी का भाव है भक्ति का, समर्पित होने का, छोड़ देने का, परमात्मा के चरणों में । मित्र का भाव नहीं है। उनका भाव है अपने को शुद्ध करने का, रूपांतरित करने का, बदलने का, ठीक है। लेकिन वह मित्र अपनी पत्नी को भी भक्ति में नहीं जाने देते। क्योंकि वे मानते हैं, कि वे जो कहते हैं, वही ठीक है । वह उनके लिए ठीक है, उनकी पत्नी के लिए ठीक नहीं है। लेकिन जो पति के लिए ठीक है वह पत्नी के लिए भी ठीक होना चाहिए, ऐसी उनकी धारणा है। अगर कल पत्नी भी उनकी उन पर जोर देने लगे कि तुम भी चलो मंदिर में, और नाचो और कीर्तन करो, और गाओ। तो मैं कहंगा, वह भी गलती कर रही है। क्योंकि जो उसके लिए ठीक है, वह उसके पति के लिए ठीक है, ऐसा मानने का कोई भी कारण नहीं है। __ असल में दूसरे पर कभी मत थोपना अपना ठीक होना । क्योंकि आपको पता नहीं, दूसरा कहां खड़ा है। आप जहां खड़े हैं, अपना जहां चल रहा है, उसे चलने देना । अकसर बहत लोग दसरों के रास्ते पर बडी बाधाएं उपस्थित करते हैं। उसका कारण है, कि वह समझ ही नहीं पाते कि दूसरा रास्ता भी हो सकता है। ___ हम सबको ऐसा खयाल है कि सत्य एक है, बिलकुल ठीक है । लेकिन उसके कारण हमको एक खयाल और पैदा हो गया कि सत्य का मार्ग भी एक है, वह बिल्कुल गलत है। सत्य एक है, सौ प्रतिशत ठीक । सत्य का मार्ग एक है, सौ प्रतिशत गलत । सत्य के मार्ग अनन्त हैं, अनेक हैं। असल में जितने पहंचने और चलनेवाले लोग हैं, उतने मार्ग हैं। हर आदमी पगडंडी से चलता है, अपनी ही पगडंडी से चलता है। और अस्तित्व की यात्रा में हम अलग-अलग जगह खड़े हैं, और अस्तित्व की यात्रा में हमने अलग-अलग चित्त निर्मित कर लिया है, जन्मों-जन्मों में हम सबके पास अलग-अलग भाव-दशा निर्मित हो गयी है। हम उससे ही चल 122 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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