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________________ पहले एक-दो प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है-कल आपने कहा कि महावीर की चिन्तना में प्रत्येक कृत्य और कर्म के लिए मनुष्य अकेला पूरा खुद ही जिम्मेवार है। जबकि दूसरी चिन्तनाएं कहती हैं कि इतने बड़े संचालित विराट में मनुष्य की बिसात ही क्या? परमात्मा की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । इस चिन्तना में कर्म को कहां रखिएगा? एक ओर स्वतंत्रता की घोषणा और दूसरी ओर परतंत्रता की बात है। या यों कहें कि डूइंग एण्ड हैपनिंग में ताल-मेल कैसे बैठेगा? ___ ताल-मेल बिठाने की बात से ही परेशानी शुरू हो जाती है । ताल-मेल बिठाना ही मत । दो मार्गों में ताल-मेल कभी भी नहीं बैठता। दोनों की मंजिल एक हो सकती है, लेकिन मार्गों में ताल-मेल कभी भी नहीं बैठता । और जो बिठाने की कोशिश करता है, वह मंजिल तक कभी भी नहीं पहुंच पाता। ___ यह हो सकता है कि पहाड़ पर चलनेवाले बहुत से रास्ते एक ही शिखर पर पहुंच जाते हों, लेकिन दो रास्ते दो ही रास्ते हैं और उनको एक करने की कोशिश व्यर्थ है। और जो व्यक्ति दो रास्तों पर ताल-मेल बिठाकर चलने की कोशिश करेगा, वह चल ही नहीं पायेगा। मंजिल में समन्वय है, मार्गों में कोई समन्वय नहीं है। लेकिन हम सब मार्गों में समन्वय बिठाने की कोशिश करते हैं और उससे बड़ी कठिनाई होती है। महावीर का मार्ग है संकल्प का मार्ग, मीरा का मार्ग है समर्पण का मार्ग । ये बिलकुल विपरीत मार्ग हैं, और मंजिल एक है। मीरा कहती है : 'तू' ही सब कुछ है, 'मैं' कुछ भी नहीं । मेरा कोई होना ही नहीं है, तेरा ही होना है । इसमें 'मैं' को पूरी तरह मिटा देना है । इतना मिटा देना है कि कुछ शेष न रह जाये, शून्य हो जाये। 'तू' ही एक मात्र सत्ता बचे, 'मैं' बिलकुल खो जाये । जिस दिन 'तू' की ही सत्ता बचेगी, उस दिन 'तू' का भी कोई अर्थ न रह जायेगा। क्योंकि 'तू' में जो भी अर्थ है वह 'मैं' के कारण है। अगर मैं अपने 'मैं' को बिलकुल मिटा दूं, तो 'तू' में क्या अर्थ होगा? यह कहना भी व्यर्थ होगा कि 'तू' ही है। यह कौन कहेगा, यह कौन अनुभव करेगा? अगर मैं 'मैं' को पूरी तरह मिटा दूं तो 'तू' में 'तू' का अर्थ ही न रह जायेगा । एक मिट जाये तो दूसरा भी मिट जायेगा। ___ मीरा कहती है, 'मैं' को हम मिटा दें। चैतन्य कहते हैं, 'मैं' को हम मिटा दें। कबीर कहते हैं, 'मैं' को हम मिटा दें। ये समर्पण के मार्ग हैं। महावीर कहते हैं, 'तू' को हम मिटा दें, 'मैं' ही बच रहे । यह बिलकुल उल्टा है, लेकिन गहरे में उल्टा नहीं भी है, क्योंकि मंजिल एक है। महावीर कहते हैं, 'तू' को भूल ही जाओ, उससे कुछ लेना-देना नहीं है, उससे कोई संबंध नहीं है। जैसे 'तू' है ही नहीं। आपके 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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