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महावीर-वाणी भाग : 2 महावीर की भाषा में स्वर्ग फल है, अच्छे कर्मों का । नरक फल है बुरे कर्मों का । और हर आदमी स्वर्ग और नरक में एक-एक पैर रखे हुए खड़ा है, क्योंकि हर आदमी मिश्रण है बुरे और अच्छे कर्मों का । आदमी की एक टांग नरक तक पहुंचती है और एक टांग स्वर्ग तक पहुंचती है। और निश्चित ही स्वर्ग और नरक के फासले पर जो आदमी खड़ा है उसको बड़ी बेचैनी, खिंचाव...आज नरक, कल स्वर्ग, सुबह नरक, सांझ स्वर्ग, इसमें तनाव, चिंता पैदा होगी।
महावीर कहते हैं, ये दोनों पैर हट जाते हैं स्वर्ग और नरक से, जब आदमी के सारे कर्म शून्य हो जाते हैं । कर्म की शून्यता मोक्ष है, कर्म का फल नहीं; शून्यता, जब सब कर्म क्षीण हो जाते हैं। ___ इसलिए महावीर कहते हैं, पापी जीव के दुख को न जातिवाले बंटा सकते हैं, न मित्र, न पुत्र, न भाई, न बंधु । दुख आता है, तब अकेले ही भोगना है। क्योंकि कर्म कर्त्ता के पीछे लगते हैं. अन्य के नहीं। कर्म का फल आपको ही भोगना पडेगा. क्योंकि का है। कर्म दूसरे का नहीं है। मेरी पत्नी का कर्म नहीं है, मेरा कर्म मेरा है, मुझे भोगना पड़ेगा।
इस अर्थ में महावीर मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति परम स्वतन्त्र है, दूसरे से बंधा नहीं है। और इसलिए कोई लेन-देन का उपाय नहीं है कि मैं दुख आपको दे दूं। हालांकि हम कहते हैं...हम कहते हैं किसी को प्रेम करते हैं तो हम कहते हैं कि सब दुख मुझे दे दो। कोई उपाय नहीं है । और शायद इसीलिए आसानी से कहते हैं, क्योंकि कोई उपाय नहीं है। अगर ऐसा हो सके तो मैं नहीं मानता कि कोई किसी से कहेगा कि सब दुख मुझे दे दो। तब प्रेमी ऐसा सोचेंगे कि कब दूसरा मांग ले सब दुख । अभी हम बड़े मजे से कहते हैं कि तुम्हारी पीड़ा मुझे लग जाये, मेरी उम्र तुम्हें लग जाये । वह लगती-वगती नहीं है, इसलिए । लगने लगे तो फिर कोई कहनेवाला नहीं मिलेगा। ___ असल में प्रत्येक व्यक्ति अकेला है। भीड़ में भी अकेला है। कितने ही संगसाथ में हो, अकेला है। वह जो चैतन्य की भीतर धारा है उसकी अपनी निजता है, इंडिविजुएलिटी है। और जो भी उस चेतना की धारा ने किया है, उसी धारा को भोगना पड़ेगा। ___ गंगा बहती है एक रास्ते से, नर्मदा बहती है दूसरे रास्ते से। तो गंगा जिन पत्थरों से बहती है, जिस मिट्टी से बहती है उसका रंग गंगा को मिलेगा। और नर्मदा जिस मिट्टी से बहती है, जिन पत्थरों से बहती है, उनका रंग नर्मदा को मिलेगा। और कोई उपाय नहीं है, कोई उपाय नहीं है। हम सब धाराएं हैं, हम सब के जीवन पथ अलग-अलग हैं । कितने ही पास-पास और कितने ही एक दूसरे को हम काटते मालूम पड़े, और कितने ही चौरस्तों पर मुलाकात हो जाये, हमारा अकेलापन नहीं कटता। हम अकेले हैं और दूसरे पर बांटने का कोई उपाय नहीं है। _इस पर बहुत जोर है महावीर का, क्योंकि यह बहुत महत्वपूर्ण है। अगर यह खयाल में आ जाये तो व्यक्ति अपनी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है। और जिस व्यक्ति ने समझा कि सारी जिम्मेदारी मेरी है, वह पहली दफे मेच्योर, प्रौढ़ होता है। नहीं तो हम बच्चे बने रहते हैं।
प्रौढ़ता का एक ही अर्थ है...बच्चा सोचता है, मां की जिम्मेदारी, बाप की जिम्मेदारी-पढ़ाओ-लिखाओ, बड़ा करो । प्रौढ़ आदमी सोचता है, अपने पैरों पर खड़ा होऊं । एक आध्यात्मिक प्रौढ़ता है। उस प्रौढ़ता का अर्थ है कि कोई के लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं, कोई मेरे लिए जिम्मेदार नहीं है। मैं बिलकुल अकेला हूं। और कोई उपाय नहीं है कि हम बांट सकें, साझा कर सकें। तो जो भी मैं हूं, उसे मुझे स्वीकार कर लेना है और जो भी मैं हूं उसको ही मुझे रूपांतरित करना है, और जो भी परिणाम आयें, किसी की शिकायत का कोई कारण नहीं है। जो भी फल आयें, उनका बोझ मुझे ही ढो लेना है।। ___ यह जोर इसलिए है कि अगर दूसरे हमारे लिए जिम्मेदार हैं तो फिर हम कभी मुक्त न हो सकेंगे। जब तक सारा जगत मुक्त न हो जाये, तब तक मेरी मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।
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