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महावीर-वाणी
भाग : 1
धर्म के संबंध में बोलने जा रहे हो, ईश्वर के संबंध में? ईश्वर के संबंध में तुम्हारा क्या विचार है?
मल्ला कहता है- अभी विचार करने की फुरसत नहीं, अभी मैं व्याख्यान देने जा रहा हं। आइ हेव नो टाइम टु थिंक नाउ। अभी मैं व्याख्यान देने जा रहा हूं। अभी बकवास में मत डालो मुझे।
बोलने की फिक्र में अकसर आदमी सोचना भूल जाते हैं। दौड़ने के इंतजाम में अकसर आदमी मंजिल भूल जाते हैं। कमाने की चिंता में अकसर आदमी भूल जाते हैं, किसलिए? जीने की कोशिश में खयाल ही नहीं आता कि क्यों? सोचते हैं कि पहले कोशिश तो कर लें, फिर क्यों की तलाश कर लेंगे। किसलिए बचा रहे हैं, यह खयाल ही मिट जाता है। जो बचा रहे हैं उसमें ही इतने संलग्न हो जाते हैं कि वही ‘एंड अनटु इटसेल्फ', अपना अपने में ही अंत बन जाता है।
न इकट्ठा करता चला जाता है। पहले वह शायद सोचता भी रहा होगा कि किसलिए? फिर धन इकट्ठा करना ही लक्ष्य हो जाता है। फिर उसे याद ही नहीं रहता कि किसलिए। फिर वह मर जाता है इकट्ठा करते-करते। वह नहीं बता सकता कि किसलिए इकट्ठा कर रहा था। वह इतना ही कह सकता था कि अब इकट्ठा करने में मजा आने लगा था। अब जीने में ही मजा
आने लगा था। अब किसलिए जीना था- क्यों जीना था- जीवन क्या था? यह सब चूक जाता है। ___ महावीर कहते हैं- जीवेषणा जीवन की वास्तविक तलाश से वंचित कर देती है। और जीवेषणा सिर्फ मरने से बचने का इंतजाम
जाती है- अमृत को जानने का नहीं, मरने से बचने का। हम सब डिफेंस की हालत में लगे हैं, चौबीस घंटे। मर न जाएं. बस इतनी ही कोशिश है। सब कुछ करने को तैयार हैं कि मर न जाएं। लेकिन जीकर क्या करेंगे? तो हम कहते हैं- पहले मरने का बचाव हो जाए, फिर सोच लेंगे। मृत्यु से बचने की कोशिश अमृत से बचाव हो जाती है। जीवन बचाने की कोशिश, जीवन के वास्तविक रूप को, परम रूप को जानने में रुकावट हो जाती है। महावीर मृत्युवादी नहीं हैं। महावीर इस जीवेषणा की दौड़ से रोकते ही इसीलिए हैं ताकि हम उस परम जीवन को जान सकें जिसे बचाने की कोई जरूरत ही नहीं है. जे कोई मिटा नहीं सकता, क्योंकि उसके मिटने का कोई उपाय ही नहीं है। उस जीवन को जानकर व्यक्ति अभय हो जाता है। और जो अभय हो जाता है, वह दूसरे को भयभीत नहीं करता। __हिंसा दूसरे को भयभीत करती है। आप अपने को बचाते हैं, दूसरे में भय पैदा करके। आप दूसरे को दूर रखते हैं फासले पर।
आपके और दूसरे के बीच में अनेक तरह की तलवारें आप अटका रखते हैं। और जरा-सा ही किसी ने आपकी सीमा का अतिक्रमण किया कि आपकी तलवार उसकी छाती में घुस जाती है। अतिक्रमण न भी किया हो, आप अगर शंकित हो गये और सोचा कि
अतिक्रमण किया है, तो भी तलवार घुस जाती है। व्यक्ति भी ऐसे ही जीते हैं, समाज भी ऐसे ही जीते हैं। राष्ट्र भी ऐसे ही जीते हैं। इसलिए सारा जगत हिंसा में जीता है, भय में जीता है। महावीर कहते हैं- सिर्फ अहिंसक ही अभय को उपलब्ध हो सकता है। और जिसने अभय नहीं जाना है वह अमृत को कैसे जानेगा? भय को जाननेवाला मृत्यु को ही जानता रहता है।
तो महावीर की अहिंसा का आधार है, जीवेषणा से मुक्ति। और जीवेषणा से मुक्ति मृत्यु की एषणा से भी मुक्ति हो जाती है। और इसके साथ ही जो घटित होता है चारों तरफ, हमने उसी को मुल्यवान समझ रखा है। महावीर एक चींटी पर पैर नहीं रखते हैं, इसलिए नहीं कि महावीर बहुत उत्सुक हैं चींटी को बचाने को। महावीर इसलिए चींटी पर पैर नहीं रखते- सांप पर भी पैर नहीं रखते, बिच्छू पर भी पैर नहीं रखते- क्योंकि महावीर अब अपने को बचाने को बहुत उत्सुक नहीं हैं। उत्सुक ही नहीं हैं। अब उनका किसी से कोई संघर्ष न रहा, क्योंकि सारा संघर्ष इसी बात में था कि मैं अपने को बचाऊं। अब वे तैयार हैं- जीवन तो जीवन, मृत्यु तो मृत्यु, उजाला तो उजाला, अंधेरा तो अंधेरा । अब वे तैयार हैं। अब कुछ भी आये वे तैयार हैं। उनकी स्वीकृति परम है।
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