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________________ महावीर वाणी भाग : 1 - अब अगर हम इसे ठीक से समझें- • उपस्थिति अनुभव करवाने की कोशिश का नाम हिंसा है, वायलेंस है। और जब भी हम किसी को कोशिश करवाते हैं अनुभव करवाने की कि मैं हूं, तभी हिंसा होती है। चाहे पति अपनी पत्नी को बतला रहा हो कि समझ ले कि मैं हूं, चाहे पत्नी समझा रही हो कि क्या तुम समझ रहे हो कि कमरे में अखबार पढ़ रहे हो तो तुम अकेले हो ! मैं यहां हूं। पत्नी अखबार की दुश्मन हो सकती है क्योंकि अखबार आड़ बन सकता है, उसकी अनुपस्थिति हो जाती है। अखबार को फाड़कर फेंक सकती है। किताबें हटा सकती है। रेडियो बंद कर सकती है। और पति बेचारा इसलिए रेडियो खोले है, अखबार आड़ा किये हुए है कि कृपा करके तुम्हारी उपस्थिति अनुभव न हो। हम सब इस चेष्टा में लगे हैं कि मेरी उपस्थिति दूसरे को अनुभव हो और दूसरे की उपस्थिति मुझे अनुभव न हो। यही हिंसा है। और यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब चाहूंगा कि मेरी उपस्थिति आपको पता चले, तो मैं यह भी चाहूंगा कि आपकी उपस्थिति मुझे पता न चले क्योंकि दोनों एक साथ नहीं हो सकते। मेरी उपस्थिति आपको पता चले, वह तभी पता चल सकती है जब आपकी उपस्थिति को मैं ऐसे मिटा दूं, जैसे है ही नहीं। हम सबकी कोशिश यह है कि दूसरे की उपस्थिति मिट जाए और हमारी उपस्थिति सघन, कंडेंस्ड हो जाए। यही हिंसा है - अहिंसा इसके विपरीत है। दूसरा उपस्थित हो और इतनी तरह उपस्थित हो कि मेरी उपस्थिति से उसकी उपस्थिति में कोई बाधा न पड़े। मैं ऐसे गुजर जाऊं भीड़ से कि किसी को पता भी न चले कि मैं था । अहिंसा का गहन अर्थ यही है - अनुपस्थित व्यक्तित्व । इसे हम ऐसा कह सकते हैं और महावीर ने ऐसा कहा है अहंकार हिंसा है और निरहंकारिता अहिंसा है। मतलब वही है। वह दूसरे को अपनी उपस्थिति प्रतीत करवाने की जो चेष्टा है। कितनी कोशिश में हम लगे हैं, शायद सारी कोशिश यही है ढंग कोई भी हों। चाहे हम हीरे का हार पहनकर खड़े हो गये हों और चाहे हमने लाखों के वस्त्र डाल रखे हों और चाहे हम नग्न खड़े हो गये हों • कोशिश यही है, क्या, कि दूसरा अनुभव करे कि मैं हूं। मैं चैन से न बैठने दूंगा। तुम्हें मानना ही पड़ेगा कि मैं हूं । छोटे-छोटे बच्चे भी इस हिंसा में निष्णात होना शुरू हो जाते हैं। कभी आपने खयाल किया होगा कि छोटे-छोटे बच्चे भी अगर घर में मेहमान हों तो ज्यादा गड़बड़ शुरू कर देते हैं। घर में कोई न हो तो अपने बैठे रहते हैं, क्यों? आपको हैरानी होती है कि बच्चा ऐसे तो शांत बैठा था, घर में कोई आ गया तो वह पच्चीस सवाल उठाता है, बार-बार उठकर आता है, कोई चीज गिराता है। वह कर क्या रहा है? वह सिर्फ अटेंशन प्रवोक कर रहा है। वह कह रहा है, हम भी हैं यहां। मैं भी हूं। और आप उससे कह रहे हैं, शांत बैठो। आप यह कोशिश कर रहे हैं कि तुम नहीं हो। वह बूढ़ा भी वही कर रहा है, बच्चा भी वही कर रहा है। आप कहते हैं, शांत बैठो। वह बच्चा भी हैरान होता है कि जब घर में कोई नहीं होता है तो बाप नहीं कहता कि शांत बैठो। अभी कुछ नहीं कहता, कितने चिल्लाओ, घूमो - फिरो, चुप बैठा रहता है। घर में कोई मेहमान आते हैं तभी यह कहता है, शांत बैठो। क्या... बात क्या है? घर में जब मेहमान आते हैं तभी तो वक्त है शांत न बैठने का । -- Jain Education International दोनों के बीच जो संघर्ष है वह इस बात का है कि बच्चा असर्ट करना चाहता है । वह भी घोषणा करना चाहता है कि मैं भी यहां हूं। महाशय, यहां मैं भी हूं । इसलिए कभी-कभी बच्चा मेहमानों के सामने ऐसी जिद पकड़ जाता है कि मां-बाप हैरान होते हैं ि ऐसी जिद उसने कभी नहीं पकड़ी थी। उनके सामने वह दिखाना चाहता है कि इस घर में मालिक कौन है, किसकी चलती है, आखिर कौन निर्णायक है। छोटे-छोटे बच्चे भी पालिटिक्स भलीभांति सीखने लगते हैं। उसका कारण है कि हमारा पूरा का पूरा आयोजन, हमारा पूरा समाज, हमारी पूरी संस्कृति अहंकार की संस्कृति है, अधर्म की। सारी दुनिया में वही है। आदमी अब तक धर्म की संस्कृति विकसित ही नहीं कर पाया। अब तक हम यह कोशिश ही जाहिर न कर पाये और हम सुनते नहीं महावीर वगैरह की, जो कि इस तरह की संस्कृति के स्रोत बन सकते थे । वे कहते हैं कि नहीं, उपस्थिति तुम्हारी जितनी पता न चले, उतना ही मंगल है। तुम्हारे लिए 68 - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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