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शरणागति : धर्म का मूल आधार
लेकिन आकार में भी परमात्मा की छवि बहुत बार दिखाई पड़ती है-कभी किसी महावीर में, कभी किसी बुद्ध में, कभी किसी क्राइस्ट में, कभी उस परमात्मा की, उस निराकार की छवि दिखाई पड़ती है। लेकिन हम उस निराकार को तब भी चूकते हैं, क्योंकि हम आकृति में कोई भूल निकाल लेते हैं। कहते हैं कि जीसस की नाक थोड़ी कम लंबी है। यह परमात्मा की नहीं हो सकती। या महावीर को तो बीमारी पकड़ती है, ये परमात्मा कैसे हो सकते हैं? कि बुद्ध भी तो मर जाते हैं, ये परमात्मा कैसे हो सकते हैं? आपको खयाल नहीं कि यह आप आकृति की भूलें निकाल रहे हैं और आकृति के बीच जो मौजूद था, उससे चूके जा रहे हैं। ___ आप वैसे आदमी हैं, जो कि दीये की मिट्टी की भूलें निकाल रहे हैं, तेल की भूलें निकाल रहे हैं और वह जो ज्योति चमक रही है, उससे चूके जा रहे हैं। होगी दीये में भूल। नहीं बना होगा पूरा सुघड़। पर प्रयोजन क्या है? तेल भर लेता है, काफी सुघड़ है। वह जो ज्योति बीच में जल रही है, वह जो निराकार ज्योति है, स्रोत-रहित-उसे तो देखना कठिन है। उसे भी देखा जा सकता है। लेकिन अभी तो प्रारंभिक चरण में उसे अरिहंत में, उसे सिद्ध में, उसे साधु में, उसे जाने हुए लोगों के द्वारा कहे गये धर्म में देखने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि अगर कृष्ण बोल रहे हों तो हम यह फिक्र कम करेंगे कि उन्होंने क्या कहा। हम इसकी फिक्र करेंगे कि कोई व्याकरण की भूल तो नहीं थी। ...ऐसे लोग हैं! ___ हम जिद्द किये बैठे हैं, चूकने की कि हम चूकते ही चले जाएंगे। और जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, उनसे ज्यादा बुद्धिहीन खोजना मुश्किल है, क्योंकि वे चूकने में सर्वाधिक कुशल होते हैं। वे महावीर के पास जाते हैं तो वे कहते हैं कि सब लक्षण पूरे हुए कि नहीं? पहले लक्षण जो शास्त्र में लिखे हैं- वे पूरे होते हैं कि नहीं। वे दीयों की नाप-जोख कर रहे हैं, तेल का पता लगा रहे हैं। और तब तक ज्योति विदा हो जाएगी। और जब तक वे तय कर पाएंगे कि दीया बिलकल ठीक है, तब तक ज्योति जा चकी होगी। और तब दीये को हजारों साल तक पूजते रहेंगे। इसलिए मरे हुए दीयों का हम बड़ा आदर करते हैं। क्योंकि जब तक हम तय कर पाते हैं कि दीया ठीक है, या अपने को तय कर पाते हैं कि चलो ठीक है, तब तक ज्योति तो जा चुकी होती है। __ इस जगत में, जिंदा तीर्थंकर का उपयोग नहीं होता, सिर्फ मुर्दा तीर्थंकर का उपयोग होता है। क्योंकि मुर्दा तीर्थंकर के साथ, भूल-चूक निकालने की सुविधा नहीं रह जाती। अगर महावीर के साथ आप रास्ते पर चलते हों, और देखें कि महावीर भी थककर
और वृक्ष के नीचे विश्राम करते हैं, शक पकड़ेगा कि अरे महावीर तो कहते थे अनंत ऊर्जा है, अनंत शक्ति है, अनंत वीर्य है। कहां गयी अनंत ऊर्जा? यह तो थक गये। दस मील चले और पसीना निकल आया। साधारण आदमी हैं। दीया थक रहा है। महावीर जिस अनंत ऊर्जा की बात कर रहे हैं वह ज्योति की बात है। दीये तो सभी के थक जाएंगे और गिर जाएंगे।
लेकिन ये सारी बातें हम क्यों सोचते हैं? यह हम सोचते हैं, इसलिए कि शरण से बच सकें। इसके सोचने का लाजिक है। इसके सोचने का तर्क है। इसके सोचने का रैशनलाइजेशन है। यह हम सोचते इसलिए हैं ताकि हमें कोई कारण मिल सके और कारण के द्वारा, हम अपने को रोक सकें- शरण जाने से। बुद्धिमान वह है जो कारण खोजता है शरण जाने के लिए। और बुद्धिहीन वह है जो कारण खोजता है शरण से बचने के लिए। दोनों खोजे जा सकते हैं।
महावीर जिस गांव से गुजरते हैं, सारा गांव उनका भक्त नहीं हो जाता। उस गांव में भी उनके शत्रु होते ही हैं। जरूर वे भी अकारण नहीं होते होंगे। उनको भी कारण मिल जाता है। वे भी खोज लेते हैं कि महावीर को, कहते हैं कि जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है। और अगर महावीर सर्वज्ञ हैं तो वे उस घर के सामने भिक्षा क्यों मांगते थे, जिसमें कोई है ही नहीं? इन्हें तो पता होना ही चाहिए न कि घर में कोई भी नहीं है! सर्वज्ञ? ये खुद ही कहते हैं, जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है। और हमने इनको ऐसे घर के सामने भीख मांगते देखा, जिसमें पता चला कि घर खाली है। घर में कोई है ही नहीं। नहीं,
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