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मनुष्यत्व : बढ़ते हुए होश की धारा
सही कहता है
क्या होगा, जब आप जोर से मुट्ठी बांधेंगे और पांच बार खोलेंगे टेबल के नीचे। आप अचानक पायेंगे, कि अब सामने के आदमी पर क्रोध करने की कोई जरूरत नहीं, वह विलीन हो गया। क्योंकि शरीर की आदत पूरी हो गयी। क्रोध पैदा होता है, एड्रीनल, और दूसरे रस शरीर में छूटते हैं, वह हाथ के फैलाव और सिकोड़ से विकसित हो जाते हैं बाहर निकल जाते हैं। आप हलके हो जाते हैं। आपको पता है, आज भी आपके पेट में कोई जरा गुदगुदा दे तो हंसी छूटती है। और कहीं क्यों नहीं छूटती? गले में छूटती है, पेट में छूटती है। और कहीं क्यों नहीं छूटती ?
डार्विन ने बताया है कि पशुओं के वे हिस्से, जिनको पकड़ कर हमला किया जाता है, संवेदनशील होने चाहिए, नहीं तो पशु जायेगा। आज आपके पेट पर कोई हमला नहीं कर रहा है, लेकिन छूने से आप सजग हो जाते हैं क्योंकि वह खतरनाक जगह है। कभी आप वहीं पकड़ कर, या पकड़े जाकर हमला किये जाते थे। वहीं हिंसा होती थी। जहां से आपके प्राण लिए जा सकते हैं, मुंह से पकड़ कर, वे हिस्से संवेदनशील हैं। इसलिए आपको गुदगुदी छूटती है। गुदगुदी का मतलब है कि बहुत सेंसिटिव है जगह । जरा-सा स्पर्श, और बेचैनी शुरू हो जाती है।
शरीर के अध्ययन से सिद्ध हुआ है कि आदमी पशुओं के साथ जुड़ी हुई एक कड़ी है। शरीर के लिहाज से। लेकिन डार्विन आधा काम पूरा कर दिया। और पश्चिम में डार्विन के बाद ही महावीर, बुद्ध और कृष्ण को समझा जा सकता था । उसके पहले नहीं। जब शरीर भी विकसित होता है तो महावीर की बात सार्थक मालूम पड़ती है कि यह चेतना जो भीतर है, यह भी विकसित हुई है। यह भी अचानक पैदा नहीं हो गयी है। यह कोई एक्सिडेंट नहीं है, एक लंबा विस्तार है। यह भी विकसित हुई है। इसका भी विकास हुआ है पशुओं से, पौधों से हम आदमी तक आये । इसका मतलब हुआ कि दोहरे विकास चल रहे हैं। शरीर विकसित हो रहा है, चेतना विकसित हो रही है; दोनों विकसित होते जा रहे हैं ।
मनुष्य अब तक इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा विकसित प्राणी है। उसके पास सर्वाधिक चेतना है और सबसे ज्यादा संयोजित शरीर है। इसलिए महावीर कहते हैं, मनुष्य होना दुर्लभ है।
शिकायत भी तो नहीं कर सकते, अगर आप कीड़े-मकोड़े होते तो किससे कहने जाते कि मैं मनुष्य क्यों नहीं हूं! और आपके पास क्या उपाय है कि अगर आप कीड़े-मकोड़े होते तो मनुष्य हो सकते। यह मनुष्य होना इतनी बड़ी घटना है, लेकिन हमारे खयाल में नहीं आती क्योंकि हम हैं ।
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काका ने एक कहानी लिखी है कि एक आदमी -- एक पादरी रात सोया । और सपने में उसे ऐसा लगा कि वह एक कीड़ा हो गया। लेकिन सपना इतना गहन था कि उसे ऐसा भी नहीं लगा कि सपना देख रहा है, लगा कि वह जाग गया है, वस्तुतः कीड़ा हो गया। तब उसे घबराहट छूटी। तब उसे पता चला कि अब क्या होगा? अपने हाथों की तरफ देखा, वहां हाथ नहीं, कीड़े की टांगें हैं। अपने शरीर की तरफ देखा, वहां आदमी का शरीर नहीं, कीड़े की देह है। भीतर तो चेतना आदमी की है, चारों तरफ कीड़े की देह है। तब वह पछताने लगा कि अब क्या होगा! आदमी की भाषा अब समझ में नहीं आती, क्योंकि कान कीड़े के हैं। चारों तरफ का जगत अब बिलकुल बेबूझ हो गया, क्योंकि आंखें कीड़े की हैं और भीतर होश रह गया थोड़ा-सा कि मैं आदमी हूं। तब उसे पहली दफा पता चला कि मैंने कितना गंवा दिया। आदमी रहकर मैं क्या - क्या जान सकता था, अब कभी भी न जान सकूंगा। अब कोई उपाय न रहा ।
अब वह तड़पता है, चीखता है, चिल्लाता है, लेकिन कोई नहीं सुनता। उसकी पत्नी पड़ोस से गुजर रही है, उसका पिता पास
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