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मनुष्यत्व : बढ़ते हुए होश की धारा
लेकिन जो शिष्य कहे, मैं शिष्य नहीं हूं, वह शिष्य होने के योग्य नहीं रह जाता। जो शिष्य है पूरे भाव से, पूरे भाव का मतलब, जितना मेरी सामर्थ्य है, उतना। पूरे का मतलब, संपूर्ण नहीं; पूरे का मतलब, जितनी मेरी सामर्थ्य है। मेरे अत्याधिक मन से मैं समर्पित हैं।
ऐसा शिष्य और ऐसा गुरु...गुरु जो इनकार करता हो गुरुत्व से, शिष्य जो स्वीकार करता हो शिष्यत्व को, इन दोनों के बीच सामीप्य घटित होता है। वह जो निकटता कल महावीर ने कही, वह ऐसे समय घटित होती है। और तब है मिलन, जब सूरज जबर्दस्ती किरणें फेंकने को उत्सुक नहीं, चुपचाप फेंकता रहता है। और जब आंखें, जबर्दस्ती आंखें बंद करके सूरज को भीतर ले जाने की पागल
चेष्टा नहीं करती, चुपचाप खुली रहती हैं। आंखें कहती हैं, हम पी लेंगे प्रकाश को, और सूरज को पता ही नहीं कि वह प्रकाश दे रहा है, तब मिलन घटित होता है। अगर सूरज कहे कि मैं प्रकाश दे रहा हूं, तो आक्रमण हो जाता है। और शिष्य अगर कहे कि मैं प्रकाश लूंगा नहीं, तुम दे देना, तो सुरक्षा शुरू हो जाती है। सुरक्षित शिष्य तक कुछ भी नहीं पहुंचाया जा सकता। दिया जा सकता है, पहुंचेगा नहीं। __ एक बात समझ लेनी चाहिए, जो मुझे पता नहीं है, उसे जानने के दो ही उपाय हैं, या तो मैं खुद कोशिश करता रहूं, वह भी आसान नहीं है. अति कठिन है वह भी। या फिर मैं किसी का सहारा ले लं। वह भी आसान नहीं है, अति कठिन है वह भी।
अपने ही पैरों जो चलने की तैयारी हो, तो फिर संकल्प की साधनाएं हैं, समर्पण की नहीं। तब कितना ही अज्ञान में भटकना पड़े, तब सहायता से बचना है, सहायता की खोज में नहीं जाना है। क्योंकि सहायता की खोज में जाने का मतलब ही है, समर्पण की शुरुआत हो गयी। तब कहीं से सहायता मिलती हो तो द्वार बंद कर लेना है। कहना है कि मर जाऊंगा, सड़ जाऊंगा, अपने ही भीतर; लेकिन कहीं कोई सहायता लेने नहीं जाऊंगा। ___ इसे हिम्मत से पूरा करना, यह बड़ा कठिन मामला है। अति कठिन है। कभी-कभी यह होता है, कभी-कभी यह हो जाता है। लेकिन अति कठिन है, दुरुह है। या फिर सहायता लेनी है तो फिर समर्पण का भाव होना चाहिए, फिर संकल्प छोड़ देना चाहिए । जो संकल्प और समर्पण दोनों की नाव पर खड़ा होता है, वह बुरी तरह डूबेगा। और हम सब दोनों नाव पर खड़े हैं। इसलिए कहीं पहुंचते नहीं, सिर्फ घसिटते हैं। क्योंकि दोनों नावों के यात्रा-पथ अलग हैं और दोनों नावों की साधना पद्धतियां अलग हैं; ओर दोनों नावों की पूरी भावदशा अलग है। इसे खयाल रखें।
अब सूत्र। 'महावीर ने कहा है, 'संसार में जीवों को इन चार श्रेष्ठ अंगों का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है—मनुष्यत्व, धर्म-श्रवण, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ ।'
मनुष्यत्व का अर्थ केवल मनुष्य हो जाना नहीं है। ऐसे तो वह अर्थ भी अभिप्रेत है। मनुष्य की चेतना तक पहुंचना भी एक लंबी, बड़ी लंबी यात्रा है। वैज्ञानिक कहते हैं, विकास है, और पहला प्राणी समुद्र में पैदा हुआ है और मनुष्य तक आया। मछली से मनुष्य तक बड़ी लंबी यात्रा है, करोड़ों वर्ष लगे हैं। डार्विन के बाद भारतीय धर्मों की गरिमा बहुत निखर जाती है। डार्विन के पहले ऐसा लगता था कि यह बात काल्पनिक है कि आदमी तक पहुंचने में लाखों-लाखों वर्ष लगते हैं। क्योंकि पश्चिम में ईसाइयत ने एक खयाल दिया जो कि बुनियादी रूप से अवैज्ञानिक है। वह था, विकास विरोधी दृष्टिकोण, कि परमात्मा ने सब चीजें बनायीं, बना दीं। आदमी बना दिया, घोड़े बना दिये, जानवर बना दिये। एक छह दिन में सारा काम पूरा हो गया और सातवें दिन हॉली-डे। परमात्मा ने विश्राम किया। छह दिन में सारी सष्टि बना दी। यह बचकाना खयाल है। और सब चीजें बना दीं। तो फिर विकास का कोई सवाल नहीं
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