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________________ मनुष्यत्व : बढ़ते हुए होश की धारा बनाया? उन्होंने कहा, ईश्वर ने। तो फिर मैंने कहा, सच्चा पापी कौन है? शैतान घृणा बनाता है, ईश्वर शैतान को बनाता है। फिर असली, कल्पित, असली उपद्रवी, कौन है। फिर तो ईश्वर ही फंसेगा। और अगर ईश्वर ही शैतान को बनाता है तो तुम कौन हो शैतान और जा कैसे पाओगे? मगर नहीं, फिर तो उन्होंने सनना-समझना बिलकल बंद कर दिया। उन्होंने होश ही खो दिया। __ हम अपने मन को बिलकुल बंद कर ले सकते हैं। और जिन लोगों को वहम हो जाता है कि वे जानते हैं-वहम। उनके मन बंद हो जाते हैं। शिष्य-भाव का अर्थ है, अज्ञानी के भाव से आना। शिष्य-भाव का अर्थ है, मैं नहीं जानता हूं और इसलिए सीखने आ रहा हूं। मित्र-भाव का अर्थ है कि हम भी जानते हैं, तुम भी जानते हो, थोड़ा लेन-देन होगा। गुरु-भाव का अर्थ है, तुम नहीं जानते हो, मैं जानता हूं, मैं सिखाने आ रहा हूं। ___ अहंकार को बड़ी कठिनाई होती है सीखने में। सीखना बड़ा अप्रीतिकर मालूम पड़ता है। इसलिए कृष्ण का वचन ऐसा लगेगा कि इस युग के लिए नहीं है। लेकिन युग की क्यों चिंता करते हैं? असल में मेरे लिए नहीं, ऐसा लगता होगा। इसलिए युग की बात उठती है। मेरे लिए नहीं। लेकिन, अगर मेरे लिए नहीं है तो फिर मझे दसरे से सीखने की बात ही छोड देनी चाहिए। दो ही उपाय हैं, सीखना हो तो शिष्य-भाव से ही सीखा जा सकता है। न सीखना हो तो फिर सीखने की बात ही छोड़ देनी चाहिए। दो में से कोई एक विकल्प है, या तो मैं सीखूगा ही नहीं, ठीक है, अपने अज्ञान से राजी हूं। अपने अज्ञान से राजी रहूंगा। कोशिश करता रहूंगा अपनी, कुछ हो जायेगा तो हो जायेगा, नहीं होगा, तो नहीं होगा लेकिन दूसरे के पास सीखने नहीं जाऊंगा। यह भी आनेस्ट है, यह भी बात ईमानदारी की है। या जब दूसरे के पास सीखने जाऊंगा तो फिर सीखने का पूरा भाव लेकर जाऊंगा। यह भी बात ईमानदारी की है। लेकिन, हमारे युग की कोई खूबी है कलियुग की, तो वह है बेईमानी। बेईमानी का मतलब यह है कि हम दोनों नाव पर पैर रखेंगे। मुझे एक मित्र बार-बार पत्र लिखते हैं कि मुझे आपसे संन्यास लेना है, लेकिन आपको मैं गुरु नहीं बना सकता। __तो फिर मुझसे संन्यास क्यों लेना है? गुरु बनाने में क्या तकलीफ आ रही है? और अगर तकलीफ आ रही है तो संन्यास लेना क्यों? खुद को ही संन्यास दे देना चाहिए। किसी से क्यों लेना? कौन रोकेगा तुम्हें? दे दो अपने को संन्यास। लेकिन तब भीतर का भी दिखायी पडता है, अज्ञान भी दिखाई पडता है, तो उसके भरने के लिए किसी से सीखना भी है, और यह भी स्वीकार नहीं करना है कि किसी से सीखा है। कोई हर्जा नहीं है। स्वीकृति का कोई गुरु को मोह नहीं होता कि आप स्वीकार करें कि उससे सीखा है। लेकिन स्वीकृति की जिसकी तैयारी नहीं है वह सीख ही नहीं पाता। अड़चन वहां है। इसलिए कृष्णमूर्ति का आकर्षण बहुत कीमती हो गया, क्योंकि हमारी बेईमानी के बड़े अनुकूल हैं। कृष्णमूर्ति के आकर्षण का कुल कारण इतना है कि हमारी बेईमानी के अनुकूल हैं। कृष्णमूर्ति कहते हैं, मैं तुम्हारा गुरु नहीं, मैं तुम्हें सिखाता नहीं। यह भी कहते हैं कि मैं जो बोल रहा हूं, वह कोई शिक्षा नहीं है, संवाद है। तुम सुनने वाले, मैं बोलने वाला, ऐसा नहीं है, एक संवाद है हम दोनों का। तो कृष्णमूर्ति को लोग चालीस साल से सुन रहे हैं। उनकी खोपड़ी में कृष्णमूर्ति के शब्द भर गये हैं। वे बिलकुल ग्रामोफोन रिकार्ड हो गये हैं। वे वही दोहराते हैं, जो कृष्णमूर्ति कहते हैं। सीखे चले जा रहे हैं उनसे, फिर भी यह नहीं कहते कि हमने उनसे कुछ सीखा है। एक देवी उनसे बहुत कुछ सीख कर बोलती रहती हैं। बहुत मजेदार घटना घटी है। उन देवी को कृष्णमूर्ति के ही मानने वाले लोग योरोप-अमरीका ले गये। उनके ही मानने वाले लोगों ने उनकी छोटी गोष्ठियां रखीं। वे लोग बड़े हैरान हुए, क्योंकि वह देवी बिलकुल ग्रामोफोन रिकार्ड हैं। वह वही 511 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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