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महावीर वाणी
बुद्ध ने अनेक मुद्राएं, अभय, करुणा, बहुत-सी मुद्राओं की बात की है। अगर उस मुद्रा में आप खड़े हो जायें तो आप तत्काल भीतर पायेंगे कि भाव में अंतर पड़ गया। अगर आप क्रोध की मुद्रा में खड़े हो जायें तो भीतर क्रोध का आवेश आना शुरू हो जाता है।
शरीर और भीतर जोड़ है। गुरु के भीतर सारे धोखे मिट गये हैं। उसके भीतर भाव होता है, उसके शरीर तक वह जाता है। इसलिए महावीर कहते हैं, शिष्य को, गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता ।। क्या गुरु कह रहा है, इसे ठीक-ठीक समझता हो, शरीर से भी ।
भाग : 1
रिझाई अपने गुरु के पास था। चौबीस घंटे रुकने के बाद उसने कहा, आप कुछ सिखायेंगे नहीं? गुरु ने कहा, चौबीस घंटे मैंने कुछ और किया ही नहीं सिवाय सिखाने के तो रिन्झाई ने कहा, एक शब्द आप बोले नहीं! या तो मैं बहरा हूं जो मुझे सुनाई नहीं पड़ा! लेकिन अभी आप बोल रहे हैं, मैं ठीक से सुन रहा हूं। आप एक शब्द नहीं बोले ।
गुरु ने कहा, मेरा सब कुछ होना बोलना ही है। तुम जब सुबह मेरे लिए चाय लेकर आये थे, तब मैंने कैसे तुमसे हाथ से चाय ग्रहण की थी, और मेरी आंखों में कैसे अनुग्रह का भाव था ! वह तुमने नहीं देखा। काश, तुम वह देख लेते! तो जो नहीं कहा जा सकता, वह मैंने कह दिया था। जब सुबह आकर तुमने मेरे चरणों में सिर रखा था और नमस्कार किया था तो मैंने किस भांति तुम्हारे सिर पर हाथ रख दिया था। काश, तुम वह समझ लेते तो बहुत कुछ समझ में आ गया होता।
शास्त्र नहीं कह सकते, जो एक इशारा कह सकता है।
महावीर कहते हैं, जो गुरु के इंगितों को समझता हो, कार्य विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपत्र कहलाता है ।
तो हमारी तो बड़ी कठिनाई हो जायेगी। हम तो महावीर चिल्ला-चिल्लाकर, डंका बजा-बजाकर कहें कि ऐसा करो, तो भी समझ में नहीं आता। समझ में भी आता है तो हमारी समझ में वही आता है जो हम समझना चाहते हैं। वह क्या कहना चाहते हैं इससे कोई लेना-देना नहीं है। हम अपने पर इस बुरी तरह आरूढ़ हैं, हम अपने आपको इस तरह पकड़े हुए हैं कि जो हम समझते हैं, वह हमारी व्याख्या होती है, इन्टरप्रिटेशन होता है। क्या महावीर कहते हैं, वह हम नहीं समझते। हम क्या समझना चाहते हैं, हम क्या समझ सकते हैं, हमारी समझ हम उनके ऊपर आरोपित करके जो व्याख्या कर लेते हैं। फिर हम उसके अनुसार चलते हैं और हम सोचते हैं कि हम महावीर के अनुसार चल रहे हैं। हम अपने ही अनुसार चलते रहते हैं ।
कभी आपने खयाल किया, मैं यहां बोल रहा हूं, मैं एक ही बात बोल रहा हूं; लेकिन यहां जितने लोग हैं, उतनी बातें समझी जा रही हैं। यहां हर आदमी अपने भीतर इंतजाम कर रहा है, समझ रहा है, अपनी बुद्धि को जोड़ रहा है, अर्थ निकाल रहा है
अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हम इतने चालाक हैं कि जो हमारे मतलब का होता है, हम उसे जल्दी से समझ लेते हैं । जो हमारे मतलब का नहीं होता, हम उसको बाई पास कर जाते हैं। उस पर हम ध्यान ही नहीं देते। जिससे हमारा लाभ होता हो उसे हम तत्काल पकड़ लेते हैं। जिसमें हमें जरा भी हानि दिखायी पड़ती हो, हम उसको सुनते ही नहीं। हम उसे गुजार जाते हैं। ऐसा नहीं कि हम सुनकर उसे गुजार जाते, हम सुनते ही नहीं। हम उस पर ध्यान ही नहीं देते। हम अपने ध्यान को एक छलांग लगा देते हैं, हम आगे बढ़ जाते हैं ।
जब मैं आपसे बोल रहा हूं तो उसमें से पांच प्रतिशत भी सुन लें तो बहुत कठिन है। उसमें से पांच प्रतिशत भी आप वैसा सुन जैसा बोला गया है, बहुत कठिन है। आप अपने को मिलाते चले जाते हैं, इसलिए अंत में जो आप अर्थ निकालते हैं, ध्यान रखना, वह आपका ही है। उसका मुझ से कुछ लेना-देना नहीं ।
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