________________
पहले एक प्रश्न ।
एक मि
कहे गये श्रेयार्थी का क्या अर्थ है ? क्या श्रेयार्थी और साधक एक ही हैं? श्रेयार्थी शब्द बहुत अर्थपूर्ण है। इस देश ने दो तरह के लोग माने हैं। एक को कहा है, प्रेयार्थी—जो प्रिय की तलाश में है और दूसरे को कहा है, श्रेयार्थी—जो श्रेय की तलाश में हैं।
दो ही तरह के लोग हैं जगत में। वे, जो प्रिय की खोज करते हैं। जो प्रीतिकर है, वही उनके जीवन का लक्ष्य है। लेकिन अनंत-अनंत काल तक भी प्रीतिकर की खोज की जाये तो प्रीतिकर मिलता नहीं है। जब मिल जाता है तो अप्रीतिकर सिद्ध होता है। जब तक नहीं मिलता है तब तक प्रीति की संभावना बनी रहती है। मिलते ही जो प्रीतिकर मालूम होता था, वह विलीन हो जाता है, तिरोहित हो जाता है। लगता है प्रीतिकर, चलते हैं तब भी आशा बनी रहती है। पा लेते हैं तब आशा खंडित हो जाती है, डिसइल्यूजनमेंट के अतिरिक्त, विभ्रम, सब भ्रमों के टूट जाने के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता।
प्रेयार्थी, इंद्रियों की मान कर चलता है। जो इंद्रियों को प्रीतिकर है, उसको खोजने निकल पड़ता है। श्रेयार्थी की खोज बिलकुल अलग है। वह यह नहीं कहता कि जो प्रीतिकर है उसे खोजंगा। वह कहता है. जो श्रेयस्कर है. जो ठीक है. जो सत्य है. जो शिव है उसे खोजूंगा। चाहे वह अप्रीतिकर ही क्यों न आज मालूम पड़े।
यह बड़े मजे की बात है और जीवन की गहनतम पहेलियों में से एक कि जो प्रीतिकर को खोजने निकलता है वह अप्रीतिकर को उपलब्ध होता है। जो सुख को खोजने निकलता है, वह दुख में उतर जाता है। जो स्वर्ग की आकांक्षा रखता है, वह नरक का द्वार खोल लेता है। यह हमारा निरंतर सभी का अनुभव है। दूसरी घटना भी इतना ही अनिवार्यरूपेण घटती है।
श्रेयार्थी हम उसे कहते हैं, जो प्रीतिकर को खोजने नहीं निकलता, जो यह सोचता ही नहीं कि यह प्रीतिकर है या अप्रीतिकर है, सुखद है या दुखद है। जो सोचता है यह ठीक है, उचित है, सत्य है, श्रेय है, शिव है, इसलिए खोजने निकलता है। श्रेयार्थी की खोज पहले अप्रीतिकर होती है। श्रेयार्थी के पहले कदम दुख में पड़ते हैं। उन्हीं का नाम तप है। ___ तप का अर्थ है-श्रेय की खोज में जो प्रथम ही दुख का मिलन होता है, होगा ही। क्योंकि इंद्रियां इनकार करेंगी। इंद्रियां कहेंगी कि यह प्रीतिकर नहीं है। छोड़ो इसे। अगर फिर भी आपने श्रेयस्कर को पकड़ना चाहा तो इंद्रियां दुख उत्पन्न करेंगी। वे कहेंगी, यह दुखद है, छोड़ो इसे। सुखद कहीं और है। इंद्रियों के द्वारा खड़ा किया गया उत्पात ही तप बन जाता है। तप का अर्थ है कि
483
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org