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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 कीमिया है। अब इस कीमिया के तीन हिस्से हए-अगर ऊर्जा पेट में जाये तो मस्तिष्क में जाती नहीं, पहली बात। अगर ऊर्जा मस्तिष्क में जाये और ध्यान न बनायी जाये तो नींद असंभव हो जायेगी । इसलिए तीसरी बात, ऊर्जा पेट में न जाये, मस्तिष्क में जाये और मस्तिष्क में ध्यान की यात्रा पर निकल जाये तो मस्तिष्क सो सकेगा और ऊर्जा ध्यान बन जायेगी। इसलिए योगी रात में सोता नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि योगी का शरीर नहीं सोता, शरीर भलीभांति सोता है। आपसे ज्यादा अच्छी तरह सोता है। शायद योगी ही इस अर्थ में ठीक से सोता है। लेकिन फिर भी सोता नहीं, भीतर कोई जागता रहता है। वह जो ऊर्जा पेट के काम नहीं आ रही है, वह जो ऊर्जा मस्तिष्क के काम नहीं आ रही है, वही ऊर्जा बूंद-बूंद ध्यान में टपकती रहती है। और भीतर एक ज्योति जागरण की जगनी शुरू हो जाती है। रात्रि से ज्यादा सम्यक अवसर ध्यान के लिए दूसरा नहीं है। इसलिए महावीर ने कहा है कि रात्रि-भोजन नहीं। जैन साधुओं को सुनकर बातें बहुत बचकानी लगती हैं। उनकी बातें सुनकर ऐसा लगता है कि ये आब्सेज्ड हैं, इनका ऐसा दिमाग खराब है। रात्रि-भोजन नहीं। और रात्रि-भोजन नहीं, इसको ऐसा बना लिया है कि जैसे इसके बिना मोक्ष न हो सकेगा। तो बात बड़ी टुच्ची मालूम पड़ती है। कहां मोक्ष, कहां रात्रि-भोजन से जोड़ रहे हो। ऐसा लगता है कि रात्रि-भोजन छोड़ दिया तो मुक्ति हो गयी। इतना सस्ता! कि रात्रि-भोजन छोड़ दिया तो मुक्ति हो गयी ? न, इसमें बीच के सूत्र खो गये हैं, जिनकी वजह से अड़चन है। बीच की सीढ़ियां खो गयी हैं। सीढ़ी है-रात्रि सबसे ज्यादा सम्यक अवसर है ध्यान के लिए, अनेक कारणों से। पहला–समस्त अस्तित्व विश्राम में चला जाता है, सूर्य के डूबते ही अस्तित्व विश्राम में चला जाता है। मगर हम उल्टे लोग हैं। हमने सब कुछ उल्टा कर रखा है। सूर्य के डूबते ही समस्त अस्तित्व विश्राम में चला जाता है, हमें भी विश्राम में जाना चाहिए, हमें सूरज के साथ यात्रा करनी चाहिए। शरीर भी विश्राम में जाना चाहिए, मन भी विश्राम में जाना चाहिए। मन के विश्राम का नाम ध्यान है। शरीर के विश्राम का नाम निद्रा है। आपका मन अगर विश्राम में नहीं जाता है तो आप ध्यान में नहीं जा सकते। लेकिन जिनका शरीर ही विश्राम में नहीं जाता, उनका मन कैसे विश्राम में जा सकेगा। इसलिए महावीर ने कहा, रात्रि-भोजन बिलकुल नहीं। इसका रात्रि से संबंध नहीं हैं, इसका आपसे संबंध है, ध्यान से संबंध है। __ अब मैं जैनों को देखता हूं, रात्रि-भोजन बिलकुल नहीं, इसलिए शाम को वह लूंस-ठूस कर खा लेते है। देखते जाते हैं कि सूरज तो नहीं डूब रहा और ज्यादा खाते जाते हैं। - एक घर में मैं ठहरा हुआ था। जो मेरे आतिथेय थे, मेजमान थे, वे मेरे साथ खाना खाने बैठे। कमरे के भीतर अंधेरा उतरने लगा। उन्होंने जल्दी से अपनी थाली ली और कहा कि मैं बाहर जाकर भोजन करता हूं। मैने पूछा, क्या हुआ? उन्होंने कहा, बाहर अभी जरा रोशनी है, दिन है। कमरे से वे बाहर चले गये, वहां उन्होंने जल्दी-जल्दी भोजन कर लिया। ___ बड़े मजे की बात है, कभी-कभी हम सूत्रों का पालन करने में सूत्रों का जो मूल है, उसकी ही हत्या कर देते हैं। जिस आदमी ने जल्दी-जल्दी भोजन किया है, उसकी रात बड़ी बैचेन गुजरेगी। क्योंकि जल्दी-जल्दी भोजन का मतलब है कि कचरे की तरह पेट में भोजन डाल दिया गया, बिना चबाये। पेट को ज्यादा अड़चन होगी इसे पचाने में। इससे तो बेहतर था कि अंधेरे में बैठकर ठीक से चबा लिया होता, क्योंकि पेट के पास दांत नहीं हैं। दांत का काम मुंह में ही हो सकता है। फिर पेट में नहीं होगा। और फिर पेट को इसे पचाने में अथक कष्ट झेलना पड़ेगा, रात्रि और मुश्किल हो जायेगी। लेकिन समझ हाथ में न हो, सूत्र हो, तो ऐसे ही अंधापन पैदा होता है। फिर चूंकि रातभर भोजन नहीं करना है, इसलिए खूब कर 472 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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