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________________ संग्रह : अंदर के लोभ की झलक दो-चार दिन बाद उसे बड़ी हैरानी हुई कि वह जिससे भी कुछ कह दे कि यह चीज बड़ी अच्छी है, वह तत्काल भेंट कर देता है। तब उसे पता चला कि एस्किमो मानते हैं कि जो चीज किसी को पसंद आ गयी, वह उसकी हो गयी। उसने पूछा कि इसके मानने का कारण क्या है? तो जिस वृद्ध से उसने पूछा, उस वृद्ध ने कहा, इसके दो कारण हैं, एक तो चीजें किसी की नहीं हैं, चीजें हैं। दूसरा इसके मानने का कारण है कि जिसके पास है, उसके लिए तो अब व्यर्थ हो गयी है। जिसके पास नहीं है, वह सम्मोहित हो रहा है। अगर उसे न मिले तो उसका सम्मोहन लंबा हो जायेगा, उसे तत्काल दे देनी जरूरी है ताकि उसका सम्मोहन टूट जाये। और तीसरा कारण यह है कि जिस चीज के हम मालिक हैं, उसकी मालकियत का मौका ही तभी आता है, जब हम किसी को देते हैं। नहीं तो कोई मौका नहीं आता। __ चीजों का होना, आपको गृहस्थ नहीं बनाता; चीजों का पकड़ना, क्लिंगिंग आपको गृहस्थ बनाता है। ये एस्किमो संन्यासी हैं, साधु हैं। जिसे हम साधु कहते हैं, अगर उसके भीतर हम झांकें तो वहां संग्रह मौजूद रहता है। बना रहता है, तो फिर वह गृहस्थ है। बाहर से आप क्या हैं, यह बहुत मूल्य का नहीं है। भीतर से आप क्या हैं, यही मूल्य का है। लेकिन भीतर से आप क्या हैं, यह आपके अतिरिक्त कौन जानेगा? कैसे जानेगा? इसलिए सदा अपने भीतर पर एक आंख रखनी चाहिए निरीक्षण की, कि मैं भीतर क्या हूं। चीज को पकड़ता हूँ? चीज मूल्यवान है बहुत? चीज न होगी तो मैं मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा, मैं चीजों का एक जोड़ हूं, तो मैं गृहस्थ हूं। फिर भाग कर जंगल में जाने से कुछ भी न होगा। फिर इस गृहस्थ होने की भीतरी व्यवस्था को तोड़ना पड़ेगा। संन्यासी होना एक आंतरिक क्रांति है। यह भीतर घटित हो जाये, तो फिर बाहर वस्तुएं हों या न हों, गौण है। महावीर ने मूर्छा को परिग्रह कहा है, अमूर्छा को संन्यास कहा है। महावीर का सूत्र है—जो सोता है, वह असाधु है। सुत्ता अमुनि। जो जागता है—वह साधु है। असुत्ता मुनि! जो सोया नहीं है, जागा हुआ है, वह साधु है। भीतरी जागरण साधुता है, भीतरी बेहोशी असाधुता है। आज इतना ही। कीर्तन में सम्मिलित हों। 459 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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