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________________ संग्रह : अंदर के लोभ की झलक धन सिर्फ धन है, उपयोगी है। न उसमें स्वर्ग है, न उसमें नरक है। हां, जो उसमें स्वर्ग देखेगा, उसे उसमें नरक मिलेगा। जो उसमें नरक देखने की कोशिश कर रहा है, उसके भीतर कहीं न कहीं, अभी भी उसमें स्वर्ग दिखाई पड़ रहा है। जो वही देख लेता है, जो धन है, उतना जितना है, उसकी मूर्छा टूट गयी। महावीर का अति जोर सम्यक बोध पर है, राइट अण्डरस्टैंडिंग पर है। हर चीज को, वह जैसी है वैसा ही जान लेना। इंचभर अपने मन को न जोड़ना। इंचभर अपनी आकांक्षाएं, आशाओं को स्थापित न करना। जो जितना है, जैसा है उतना ही जान लेना अपने प्रोजेक्शन, अपने प्रक्षेप संयुक्त न करना। लेकिन हम नहीं बच सकते। किसी को हम कहेंगे है, किसी को हम कहेंगे कुरूप है, किसी को हम कहेंगे मित्र है, किसी को हम कहेंगे शत्रु है। और जब हम यह वक्तव्य देते हैं, तब हमने आकांक्षाएं जोड़नी शुरू कर दी। ___ मित्र जब आप किसी को कहते हैं, तो क्या मतलब है आपका? आपका मतलब है कि इससे कुछ अपेक्षाएं पूरी हो सकती हैं। मित्र है, मुसीबत में काम पड़ेगा। मित्र है, इससे हम आशा रख सकते हैं कि कल ऐसा करेगा। शत्रु से भी आपकी आशाएं हैं कि वह क्या-क्या करेगा। विपरीत आशाएं हैं। आप में बाधा डालेगा, लेकिन आपने कुछ जोड़ दी आशाएं। जब आपने किसी को कहा मित्र, तो आपने आशाएं जोड़ लीं, जब आपने किसी को कहा शत्रु, तो आपने आशाएं जोड़ लीं। आप सम्मोहन के जगत में प्रवेश कर गये। जब आपने अ को अ कहा, ब को ब कहा, न मित्र को मित्र कहा, न शत्रु को शत्रु कहा। जब आपने जो है, उतना ही जाना, उसमें कुछ अपनी तरफ से भविष्य न जोड़ा, तो आप मूर्छा के बाहर हो गये। मूर्छा के बाहर होने की विधि के तीन सूत्रएक-वस्तुओं को उनके तथ्य में देखना, आशाओं में नहीं। दो-वस्तुओं को कभी भी साध्य न समझना, साधन । तीन-स्वयं की मालकियत कभी भी वस्तुओं के मरुस्थल में न खो जाये, इसके लिए सचेत रहना। 'सामग्रियों में आसक्ति, ममता, मूर्छा रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि ने बताया है। संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है।' बाहर हम जो भी करते हैं, वह भीतर की झलक है। बाहर का हमारा सारा व्यवहार हमारे अंतस का फैलाव है। आप बाहर जो भी करते हैं, वह आपके भीतर की खबर देता है। जरा-सी भी बात आप बाहर करते हैं, वह भीतर की खबर देता है। आप बैठे हैं, या बैठे-बैठे टांग भी हिला रहे हैं कुर्सी पर तो वह आपके भीतर की खबर दे रहा है। क्योंकि टांग ऐसे नहीं मिलती, उसे हिलाना पडता है। आप हिला रहे हैं। आपको पता भी न हो, और पता हो जाये तो तत्काल टांग रुक जाये। इस वक्त किसी की ? नहीं हिल रही होगी। तत्काल रुक जाये। लेकिन हिल रही थी, और आपको पता चला तो रुक भी गयी। इसका मतलब क्या हआ, आपके भीतर बहुत-कुछ चल रहा है, जिसका आपको पता नहीं। और आपके भीतर बहुत-कुछ हो रहा है जो बाहर भी प्रगट हो रहा है, लेकिन आपको पता नहीं। इसलिए बड़े मजे की घटना घटती है। दूसरों के दोष हमें जल्दी दिखायी पड़ जाते हैं, अपने दोष मुश्किल से दिखायी पड़ते हैं; क्योंकि खुद के दोष अचेतन चलते रहते हैं। ऐसा कोई जानकर नहीं करता कि अपने दोष नहीं देखना चाहता, लेकिन खुद के दोष इतने अचेतन हो गये होते हैं, इतने हम आदी हो गये होते हैं कि दिखायी नहीं पड़ते। दूसरे के तत्काल दिखायी पड़ जाते हैं। क्योंकि दूसरा सामने खड़ा होता है। फिर अपने दोषों के साथ हमारे लगाव होते हैं, मूर्छाएं होती हैं, अंधापन होता है। दूसरे के दोष के प्रति 455 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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