________________
अपरिग्रह - सूत्र
न सो परिग्गह वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वृत्ती, इइ वुत्तं महेसिणा ।। लोहस्सेस अणुकोसी, मन्त्रे अन्नमवि । जे सिया सन्निहिकामे, गिही पव्वइए न से । ।
प्राणिमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र (भगवान महावीर) ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं बतलाया है। लेकिन इन सामग्रियों में असक्ति, ममता व मूर्छा रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि ने बताया है।
संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है । अतएव मैं मानता हूं कि जो संग्रह करने की वृत्ति रखते हैं, वे गृहस्थ हैं, साधु नहीं ।
Jain Education International
442
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org