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मंगल व लोकोत्तम की भावना
जैसा हिन्दू धर्म' का। जैन परंपरा में धम्म का जो अर्थ है वह समझ लेना चाहिए - वह बहुत खूबी का है, विशिष्ट है और जैन दृष्टि को एक नये आयाम में फैलाता है। मजहब का अर्थ तो होता है - क्रीड, एक मत, एक पंथ। अंग्रेजी के रिलीज़न शब्द का अर्थ होता है करीब-करीब वही जो योग का अर्थ होता है। वह जिस सूत्र से बना है रिलीगेयर, उसका अर्थ होता है जोड़ना, आदमी को परमात्मा से जोड़ना। योग का भी वही अर्थ होता है, आदमी को परमात्मा से जोड़ना।
लेकिन जैन चिंतन परमात्मा के लिए जगह ही नहीं रखता। इसलिए आप यह जानकर हैरान होंगे कि जैन योग का अच्छा अर्थ नहीं मानते। जैन कहते हैं – केवली अयोगी होता है- अयोगी, योगी नहीं। इसलिए महावीर को कुछ नासमझ, कुछ भूल से भरे लोग महायोगी कहते हैं, वे गलत कहते हैं। जैन परंपरा के शब्द का उन्हें पता नहीं। महावीर कहते हैं- जुड़ना नहीं है किसी से, जो गलत है उससे टूटना है, अलग होना है। अयोग- संसार से अयोग, तो स्वरूप उपलब्ध हो जाता है। योग कहता है - परमात्मा से मिलन, तो स्वरूप उपलब्ध होता है। महावीर कहते हैं – स्वरूप उपलब्ध ही है। जो हमें पाना है, वह हमें मिला ही हुआ है। सिर्फ हम गलत चीजों से चिपके खड़े हैं, इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहा है। गलत को छोड़ दें, अयुक्त हो जाएं, अलग हो जाएं। इसलिए जैन परंपरा में अयोग का वही मूल्य है जो हिन्दू परंपरा में योग का है। धर्म का बड़ा अनूठा अर्थ जैनों का है। महावीर कहते हैं कि वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है, नेचर। धर्म का महावीर का वही अर्थ है जो लाओत्से के ताओ का। __ वस्तु का जो स्वभाव है, जो उसकी स्वयं की अपनी परिणति है- अगर कोई व्यक्ति बिना किसी से प्रभावित हुए सहज वरण-चरण कर पाए तो धर्म को उपलब्ध हो जाता है - अगर कोई व्यक्ति बिना प्रभावित हुए। इसलिए प्रभाव को महावीर अच्छी बात नहीं मानते। किसी से भी प्रभावित होना बंधना है। सब इंप्रेशंस बांधने वाले हैं। पूर्णतया अप्रभावित हो जाना निज हो जाना है, स्वयं हो जाना है। इस निजता को, इस स्वयं होने को वे धर्म कहते हैं। केवली प्ररूपित धर्म का अर्थ होता है, जब कोई व्यक्ति केवल ज्ञान मात्र रह जाता है, चेतना मात्र रह जाता है। तब वह जैसे जीता है वही धर्म है। उसका जीवन, उसका उठना, उसका बैठना, उसका हलन-चलन, उसका सोना- वह जो भी करता है-- उसकी आंख की पलक का उठना और हिलना, उसकी समस्त अस्तित्व में प्रकट होती हुई जो भी किरणें हैं- वही धर्म है। __ जैसे अग्नि अपने शुद्ध रूप में जलती हो तो धुआं पैदा नहीं होता। आप कहेंगे - अग्नि तो जहां भी जलती है, वहां धुआं पैदा होता है। और तर्क की किताब में लिखा हुआ है- जहां-जहां धुआं, वहां-वहां अग्नि। इसलिए जहां धुआं दिखे, मान लेना कि अग्नि है। लेकिन धुआं अग्नि से पैदा नहीं होता, केवल ईंधन के गीलेपन से पैदा होता है। अग्नि से उसका कोई लेना-देना नहीं है। अगर ईधन बिलकुल गीला न हो तो धुआं पैदा नहीं होता। धुआं अग्नि का स्वभाव नहीं है, ईधन का प्रभाव है- जब ईधन गीला होता है तब पैदा होता है। तो कहना चाहिए - वह पानी से पैदा होता है, वह अग्नि से पैदा नहीं होता- धुआं। अगर बिलकुल सूखा ईधन है, जिसमें पानी जरा भी नहीं है तो धुआं पैदा नहीं होगा। और अगर पैदा होता है तो जानना कि थोड़ा-बहुत ईधन गीला है। अग्नि जब अपने शुद्ध रूप में होती है, जब उसमें कोई दूसरा विजातीय, फारिन एलीमेंट नहीं होता- तब उसमें कोई धुआं नहीं होता। ___ महावीर कहते हैं- तब अग्नि अपने धर्म में है, जब कोई धुआं नहीं है। जब चेतना बिलकुल शुद्ध होती है और पदार्थ का कोई प्रभाव नहीं होता, शरीर का पता भी नहीं होता-जब चेतना इतनी शुद्ध होती है कि शरीर का पता भी नहीं होता है। तब महावीर कहते हैं कि, जानना कि चेतना अपने धर्म में है। इसलिए महावीर कहते हैं—प्रत्येक का अपना धर्म है – अग्नि का अपना है; जल का अपना है; पदार्थ का अपना है; चेतना का अपना है। शुद्ध हो जाना अपने धर्म में-आनन्द है; अशुद्ध रहना अपने धर्म में दुख
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