________________
सत्य-सूत्र
निच्चकालऽप्पमत्तेणं, मुसावायविवजणं । भासियव्वं हियं सच्चं, निच्चाऽऽउत्तेण दुक्करं ।।
तहेव सावजऽणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघायणी। से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरं वएज्जा।।
सदा अप्रमादी व सावधान रहते हुए असत्य को त्याग कर हितकारी सत्य-वचन ही बोलना चाहिए। इस प्रकार का सत्य बोलना सदा बड़ा कठिन होता है।
श्रेष्ठ साधु पापमय, निश्चयात्मक और दूसरों को दुख देने वाली वाणी न बोलें। इसी प्रकार श्रेष्ठ मानव को क्रोध, लोभ, भय और हंसी-मजाक में भी पापवचन नहीं बोलना चाहिए।
384
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org