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मंगल व लोकोत्तम की भावना
है, धीरे-धीरे वैसा ही हो जाता है। जैसा हम सोचते हैं, वैसे ही हम हो जाते हैं। जो हम मांगते हैं, वह मिल जाता है।
हम सदा गलत मांगते हैं. वही हमारा दर्भाग्य है। हम उसी की तरफ आंख उठाकर देखते हैं जो हम होना चाहते हैं। अगर आप एक राजनैतिक नेता के आसपास भीड़ लगाकर इकट्ठे हो जाते हैं, तो यह भीड़ सिर्फ इसकी ही सूचना नहीं है कि राजनैतिक नेता आया है। गहन रूप से इस बात की सूचना है कि आप कहीं राजनैतिक पद पर होना चाहते हैं। हम उसी को आदर देते हैं जो हम होना चाहते हैं, जो हमारे भविष्य का माडल मालूम पड़ता है। जिसमें हमें दिखाई पड़ता है कि काश, मैं हो जाऊं। हम उसी के आसपास इकट्ठे हो जाते हैं। अगर सिने-अभिनेता के पास भीड़ इकट्ठी हो जाती है तो वह आपकी भीतरी आकांक्षा की खबर देती है- आप भी वही हो जाना चाहते हैं।
अगर महावीर ने कहा है कि कहो – 'अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साह मंगलं' तो वे यह कह रहे हैं कि यह तुम कह ही तब पाओगे जब तुम अरिहंत होना चाहोगे। या तुम जब यह कहना शुरू करोगे, तो तुम्हारे अरिहंत होने की यात्रा शुरू हो जाएगी। और बड़ी से बड़ी यात्रा बड़े छोटे से कदम से शुरू होती है। और पहले कदम से कुछ भी पता नहीं चलता। धारणा पहला कदम है।
कभी आपने सोचा कि आप क्या होना चाहते हैं? नहीं भी सोचा होगा सचेतन रूप से तो भी अचेतन में चलता है कि आप क्या होना चाहते हैं। जो आप होना चाहते हैं उसी के प्रति आपके मन में आदर पैदा होता है। न केवल आदर, जो आप होना चाहते हैं उसी के संबंध में आपके मन में चिंतन के वर्तुल चलते हैं, वही आपके स्वप्नों में उतर आता है; वही आपकी सांसों में समा जाता है; वही आपके खून में प्रवेश कर जाता है। और जब मैं कहता हूं - खून में प्रवेश कर जाता है, तो मैं कोई साहित्यिक बात नहीं कह रहा हूं - मैं मेडिकल, मैं बिलकुल शारीरिक तथ्य की बात कह रहा हूं। __इधर प्रयोग किये गये हैं और चकित करने वाले सूचन मिले हैं। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डिलावार प्रयोगशाला में विचार का
खून पर क्या प्रभाव पड़ता है - दूसरे की धारणा का भी, आपकी धारणा तो छोड़ दें, आपकी धारणा का तो पड़ेगा ही -दूसरे की धारणा का भी, अप्रगट धारणा का भी आपके खून पर क्या प्रभाव पड़ता है? अगर आप ऐसे व्यक्ति के पास जाते हैं जिसके हृदय से बहती करुणा और मंगल की भावना है, जो आपके लिए शुभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं सोच पाता - तो डिलावार लेबोरेटरी के प्रयोगों का दस वर्षों का निष्कर्ष यह है कि आपके खून में-ऐसे व्यक्ति के पास जाते ही, जो आपके प्रति मंगल की भावना रखता है-सफेद कण, पंद्रह सौ की तादाद में तत्काल बढ़ जाते हैं, इमीजियेटली। दरवाजे के बाहर आपके खून की परीक्षा की जाए और फिर आप भीतर आ जाएं और मंगल की कामना से भरे हुए व्यक्ति के पास बैठ जाएं और फिर आपके खून की परीक्षा की जाए, आपके खून में सफेद, व्हाइट ब्लड सैल्स - सफेद जो कोश हैं खून के - वे पंद्रह सौ बढ़ जाते हैं। जो व्यक्ति आपके है उसके पास जाकर सोलह सौ कम हो जाते हैं- तत्काल, इमीजियेटली।
और मेडिकल साइंस कहती है कि आपके स्वास्थ्य की रक्षा का मूल आधार सफेद कणों की अधिकता है। वे जितने ज्यादा आपके शरीर में होते हैं उतना आपका स्वास्थ्य सुरक्षित है। वे आपके पहरेदार हैं। आपने देखा होगा. खयाल नहीं किया होगा. चोट लग जाती है तो चोट लगकर जो आपको मवाद पड़ जाती है वह मवाद सिर्फ रक्षक है, आपके शरीर के खून के सफेद कण। वे भागकर फौरन एक पर्त पहरेदारी की खडी कर देते हैं। जिसको आप मवाद समझते हैं वह मवाद नहीं है, वे आपके दुश्मन नहीं हैं, वे खुन के सफेद कण हैं जो तत्काल दौड़कर घाव को चारों तरफ से घेर लेते हैं, जैसे कि पुलिस ने पहरा लगा दिया हो। क्योंकि उनके पर्त को पार करके कोई भी कीटाणु शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता है। वे रक्षक हैं। डिलावार प्रयोगशाला में किये गये प्रयोगों ने चकित कर दिया है वैज्ञानिकों को कि क्या शभ की भावना से भरे व्यक्ति का इतना
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धून
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