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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 जाता है। इसलिए प्रेमी निश्चिंतता से मर सकते हैं। प्रेमी को मृत्यु में कोई भय नहीं रह जाता। लेकिन जिसने कभी प्रेम न किया हो, वह मृत्यु से बहुत डरेगा। तब एक दुष्ट चक्र निर्मित होता है, एक वीशियस सर्कल बन जाता है। मृत्यु से डरता है, इसलिए प्रेम में भी नहीं उतरता, क्योंकि प्रेम का अनुभव भी गहरे में मृत्यु का ही अनुभव है। जब तक कोई पूरी तरह मिटता नहीं, तब तक प्रेम का जन्म भी नहीं होता। __ इसलिए प्रेम एक आध्यात्मिक अर्थों में मृत्यु है। प्रेम वही कर सकता है जो अपने को मिटा लेने को राजी हो। जब तक कोई इतना ना कि बचे ही नहीं, तब तक प्रेम का फूल नहीं खिलता। इसलिए जिसने प्रेम को जान लिया हो, उसने मृत्यु को भी जान लिया। या जिसने मृत्यु को जान लिया हो, उसने प्रेम को भी जान लिया। __ प्रेम और मृत्यु बड़ी संयुक्त घटनाएं हैं। गहरे आंतरिक तल पर वे एक ही चीज के दो रूप हैं। यह बहुत हैरानी की बात है। लेकिन, विचारणीय है। मृत्यु तो हम जब मरेंगे, तब होगी। दूसरे को मरते देखकर हम मृत्यु का कोई अनुभव नहीं कर सकते। खुद मरेंगे, तभी अनुभव होगा। लेकिन एक उपाय है प्रेम, जिससे हम मृत्यु का अनुभव आज भी कर सकते हैं। फिर प्रेम का ही और विराट रूप है, प्रार्थना। फिर प्रेम का ही सार अंश है, ध्यान। वे सब मत्य के रूप हैं। हिंदु शास्त्रों में तो कहा है कि गुरु मृत्यु है। इसी अर्थ में कहा है कि गुरु के पास तभी कोई पहुंच सकता है, जब वह इस स्थिति में अपने को छोड़ दे, जैसे कि खुद मिट गया। और अगर गुरु के पास मृत्यु घटित न हो, तो गुरु से कोई संबंध नहीं जुड़ता। ___ श्रद्धा भी मृत्यु है। वह प्रेम का ही एक रूप है। यह मृत्यु तो जीवन के अंत में आएगी, जिसे हम दूसरे में घटते देखते हैं। लेकिन प्रेम आज भी घट सकता है। प्रार्थना आज भी हो सकती है। ध्यान में आज भी प्रवेश हो सकता है। जो लोग ध्यान में प्रवेश कर जाते हैं, मृत्यु का भय मिट जाता है। सिर्फ ध्यानी मृत्यु के बाहर हो जाता है, जैसे प्रेमी बाहर हो जाता है। क्यों? इसलिए नहीं कि ध्यान के द्वारा मृत्यु पर विजय हो जाती है, इसलिए भी नहीं कि प्रेम के द्वारा मृत्यु पर विजय हो जाती है। बल्कि इसलिए कि जो प्रेम में मरकर देख लेता है वह जान जाता है कि जो मरता है, वह मैं नहीं हूं। ध्यान में जो मरकर देख लेता है, वह जान जाता है कि जो मरता है, वह मेरी परिधि है, मेरी देह है, मेरा आवरण है, मैं नहीं हूं। मृत्यु से गुजरकर जाना जाता है कि मेरे भीतर कोई अमृत भी है। इस अमृत के बोध से मृत्यु नहीं मिटती। मृत्यु तो घटेगी ही, महावीर को भी घटेगी और कृष्ण को भी घटेगी और बुद्ध को भी घटेगी। मृत्यु तो घटेगी ही, लेकिन तब यह मृत्यु केवल दूसरों के लिए होगी। दूसरे देखेंगे कि महावीर मर गये, और महावीर जानते रहेंगे कि वे नहीं मर रहे हैं। भीतर कोई मृत्यु घटित नहीं होगी, तब मृत्यु बाहरी घटना हो जायेगी, खुद के लिए भी। ऐसा अनुभव न हो पाये तो जीवन व्यर्थ गया। इसे हम समझ लें तो फिर यह सत्र समझ में आये। एक बीज हम बोते हैं। वृक्ष बढ़ता है, बड़ा होता है। कब आप कहते हैं कि वृक्ष सफल हुआ? बीज बोया सफल हुआ? जब फल लगते हैं, जब फल पकते हैं, जब फूल खिलते हैं; वृक्ष जो दे सकता था, जब पूरा दे देता है, तब हम कहते हैं, सफल हुआ श्रम। जिस वृक्ष पर फल न लगें, बांझ रह जाये, उस वृक्ष को हम सफल न कहेंगे। हम कहेंगे, कहीं अवरोध आ गया, कहीं रास्ता भटक गया, कहीं वृक्ष ऐसे रास्ते पर चला गया, जहां जीवन की निष्पत्ति नहीं होती। जहां जीवन में निर्णय नहीं आता। इस वृक्ष का होना व्यर्थ हो गया। मनुष्य भी एक वृक्ष है और मनुष्य भी एक बीज है। सभी मनुष्य फल तक नहीं पहुंचते। पहुंचना चाहिए। पहुंच सकते हैं। सभी के लिए संभव है, लेकिन हो नहीं पाता। कुछ लोग भटक जाते हैं। कुछ लोग ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं, जहां उनके जीवन में कोई 368 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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