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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 जाये तो आप पहचान न सकेंगे, एक दिन आप वह हो सकते हैं। शरीर प्रतिपल बदल रहा है। ___ महावीर कहते हैं, 'जो बदल रहा है, वह मैं नहीं हूं'। इसको धारण करो, इसको गहन में उतारते चले जाओ। यह तुम्हारे चेतन-अचेतन में पोर-पोर में डूब जाये कि जो बदल रहा है, वह मैं नहीं हूं। ___ मन भी बदल रहा है, प्रतिपल बदल रहा है। शरीर तो थोड़ा धीरे-धीरे बदलता है, मन तो और तेजी से बदल रहा है। तो महावीर कहते हैं, 'जो बदल रहा है, वह 'मैं' नहीं हूं।' मन भी 'मैं नहीं हूं। प्रतिपल धारणा को गहरा करते चले जाओ, यही एकाग्र चिंतन रह जाये कि मन भी 'मैं' नहीं हूं। अभी यह विचार क्षणभर भी नहीं टिकता, दूसरा विचार, वह भी नहीं टिकता, तीसरा विचार। मन एक धारा है विचारों की। वह भी 'मैं' नहीं हूं। ऐसा डूबते जाओ भीतर, डूबते जाओ भीतर जब तक तुम्हें परिवर्तनशील कुछ भी दिखाई पड़े, तत्काल अपने को तोड़ लो उससे, दूर हो जाओ। एक दिन उस जगह पहुंच जाओगे जहां कुछ परिवर्तनशील नहीं दिखाई पड़ेगा, जिससे तोड़ना हो अपने को। जिस दिन वह घड़ी आ जाये जहां कुछ भी परिवर्तित होता हुआ न दिखाई पड़े, जानना कि धर्म में प्रवेश हुआ। वही स्वभाव है। ___ महावीर कहते हैं कि यही स्वभाव द्वीप है। यही स्वभाव प्रतिष्ठा है। यही स्वभाव गति है। गति का अर्थ-यही स्वभाव एकमात्र मार्ग है, और कोई गति नहीं है और यही स्वभाव उत्तम शरण है। अगर जाना ही है किसी की शरण में, तो इस स्वभाव की शरण चले जाओ। अगर किन्हीं चरणों में सिर रख ही देना है, तो इसी स्वभाव के चरणों में सिर रख दो। और कोई चरण काम नहीं पड़ सकते, और कोई शरण सार्थक नहीं है। स्वभाव ही शरण है। और अगर हमने महावीर के चरणों में सिर रखा और अगर हमने कहा कि जिसने जाना है, स्वयं को, उसकी शरण हम जाते हैं, तो यह केवल अपनी शरण आने के लिए एक माध्यम है। इससे ज्यादा नहीं। जो इस शरण में ही रुक जाये, वह भटक गया। __महावीर की भी शरण अगर कोई जाता है तो सिर्फ इसलिए कि अपनी शरण आ सके। और महावीर की भी शरण जाता है, इसलिए कि हम नहीं पहुंच पाये अपने स्वभाव तक, कोई पहुंच गया है। जो हम हो सकते हैं, कोई हो गया है। जो हमारी संभावना है,किसी के लिए वास्तविक हो गई। लेकिन वह भी वस्तुतः हम अपने ही स्वभाव की शरण जा रहे हैं। उसके अतिरिक्त कोई गति, कोई द्वीप, कोई शरण नहीं है। आज इतना ही। लेकिन पांच मिनट रुकें। 364 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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