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________________ महावीर वाणी भाग : 1 पागल है। थोड़ा समझ-बूझ से काम ले। जरा सोच, जिस सौंदर्य के पीछे तू दीवाना है, दैट ब्यूटी इज ओनली स्किन डीप - वह सौंदर्य केवल चमड़ी की गहराई का है - तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, 'दैट इज इनफ फार मी, आई एम नाट ए कैनिबाल । मेरे लिए काफी है, अगर चमड़ी पर सौंदर्य है। मैं कोई आदमखोर तो नहीं हूं कि भीतर तक की स्त्री को खा जाऊं। ऊपर-ऊपर काफी है, भीतर का करना क्या है? आई एम नाट ए कैनिबाल । ठीक कहा, हम भी यही मान कर जीते हैं। ऊपर-ऊपर काफी है, भीतर जाने की जरूरत क्या है? लेकिन यह सवाल स्त्री का ही नहीं है, यह सवाल पुरुष का ही नहीं है, यह सवाल हमारे पूरे जीवन को देखने का है। ऊपर ही ऊपर जो मानते हैं, काफी है, वे प्रवाह से कभी छुटकारा न पा सकेंगे। क्योंकि प्रवाह के बाहर जो जगत है, वह ऊपर नहीं है, वह भीतर है। लेकिन बड़ा मजा है, स्त्री के भीतर हड्डी, मांस-मज्जा ही अगर हो तब तो नसरुद्दीन ठीक कहता है कि इस झंझट में पड़ना ही क्यों ? लेकिन स्त्री की हड्डी, मांस-मज्जा भी भीतर जाने का उपाय है। और हड्डी, मांस-मज्जा के भीतर वह जो स्त्री की आत्मा है, वह प्रवाह के बाहर है। तो तीन बातें हम समझ लें । एक तो सतह है, फिर सतह के नीचे छिपा हुआ जगत है, और फिर सतह के नीचे की भी गहराई में छिपा हुआ केंद्र है। परिधि है, फिर परिधि और केंद्र के बीच का फासला है और फिर केंद्र है। जब तक कोई केंद्र पर न पहुंच जाये तब तक न तो सत्य का कोई अनुभव है, न सौंदर्य का कोई अनुभव है। सौंदर्य का भी अनुभव तभी होता है जब हम किसी दूसरे व्यक्ति के केंद्र को स्पर्श करते हैं। प्रेम का भी वास्तविक अनुभव तभी होता है, जब हम किसी व्यक्ति के केंद्र को छू लेते हैं; चाहे क्षणभर को ही सही, चाहे एक झलक ही क्यों न हो । जीवन में जो भी गहन है, जो भी महत्वपूर्ण है, वह केंद्र है। लेकिन परिधि पर हम अगर घूमते रहें, घूमते रहें, तो जन्मों-जन्मों तक घूम सकते हैं। जरूरी नहीं है कि हम कितना घूमें कि केंद्र तक पहुंच जायें। एक आदमी एक चाक की परिधि पर बैठ जाए और घूमता रहे, घूमता रहे जन्मों-जन्मों तक, कभी भी केंद्र पर नहीं पहुंचेगा । हम ऐसे ही घूम रहे हैं। इसीलिए हमने इस जगत को संसार कहा है | संसार का अर्थ है - एक चक्र, जो घूम रहा है। उसमें दो उपाय हैं होने के, संसार में होने के दो ढंग हैं - एक ढंग है परिधि पर होना, एक ढंग है उसके केंद्र पर होना। केंद्र पर होना धर्म है । महावीर कहते हैं— 'धर्म स्वभाव है' । 'वत्थू सहावो धम्म' । वह जो प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है, उसका आंतरिक, अंतरतम, वही धर्म है। महावीर के लिए धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं है, खयाल रखना, मजहब नहीं है। महावीर के लिए धर्म से मतलब - हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्ध, मुसलमान नहीं है। महावीर कहते हैं, धर्म का अर्थ है - तुम्हारा जो गहनतम स्वभाव है, वही तुम्हारी शरण है। जब तक तुम अपने उस गहनतम स्वभाव को नहीं पकड़ पाते हो, तब तक तुम प्रवाह में भटकते ही रहोगे; और प्रवाह में जरा और मृत्यु के सिवाय कुछ भी नहीं है । प्रवाह में है: मृत्यु। केंद्र पर है अमृत प्रवाह में है जरा, दुख। केंद्र पर है, आनंद । प्रवाह में है चिंता, संताप, केंद्र पर है शून्य, शांति । प्रवाह है संसार, केंद्र है मोक्ष । महावीर को अगर ठीक से समझें तो जहां-जहां हम पर्त को पकड़ लेते हैं परिवर्तनशील पर्त को, वहीं हम संसार में पड़ते हैं। जहां हम परिवर्तनशील पर्त को उघाड़ते हैं, उघाड़ते चले जाते हैं, तब तक, जब तक कि अपरिवर्तित का दर्शन न हो जाये । यह उघाड़ने की प्रक्रिया ही योग है। और जिस दिन यह उघड़ जाता है और हम उस स्वभाव को जान लेते हैं जो शाश्वत है, जिसका Jain Education International 362 - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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