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महावीर-वाणी
भाग : 1
अगर ठीक से समझें, तो एक बिलकुल मरे हुए जगत की। क्योंकि जहां जरा सी भी बदलाहट होगी, वहां सब अस्तव्यस्त हो जायेगा। हम एक ऐसा जगत चाहते हैं, बिलकुल मरा हुआ जगत, जहां सब चीजें ठहरी हैं। सूरज अपनी जगह है, छाया अपनी जगह है, प्रेम अपनी जगह है-सब ठहरा हुआ है। आदर, श्रद्धा अपनी जगह है, बेटा अपनी जगह है, पति अपनी जगह है-सब ठहरा हआ है। तो हम एक मौन का जगत बना लें, बिलकल मत, जहां कोई चीज कभी नहीं बदलती। लेकिन तब भी हम सखी न होंगे। क्योंकि तब लगेगा, सब मर गया।
फ्रायड कहता है, आदमी की आकांक्षाएं असंभव हैं। वह कभी सुखी नहीं हो सकता। अगर जगत बदलता रहे तो वह दुखी होता है कि जो चाहा था वह नहीं हआ। अगर जगत बिलकल थिर हो जाये, जो वह चाहे वही हो जाये, तो भी वह दुखी हो जायेगा। क्योंकि तब उसमें कोई रस न रहेगा। अगर गुलाब का फूल खिले और खिला ही रहे, कभी न मुरझाये, तो प्लास्टिक के फूल
ला ही रहे, कभी न मुरझाये, तो प्लास्टिक के फूल में और गलाब के फल में फर्क क्या होगा? और आप भगवान से प्रार्थना करने लगोगे कि कभी तो यह मुरझाये। कभी तो ऐसा हो कि यह गिरे और बिखर जाये छाती पर भारी पड़ने लगा। __ कहते हैं आप, शाश्वत प्रेम! आपको पता नहीं। शाश्वत प्रेम मिल जाये, तो एक ही प्रार्थना उठेगी, इससे
हम सब चाहते हैं, ठहरा हुआ जगत। लेकिन चाह सकते हैं क्योंकि वह मिलता नहीं। मिल जाये तो कठिनाई खड़ी हो जाये। फ्रायड कहता है, आदमी एक असंभव आकांक्षा है। ___ ज्यां पाल सात्र ने इस बात को अभी एक नया रुख दिया, और वह कहता है, मैन इज एन एब्सर्ड पैशन। वासना ही मूढ़तापूर्ण है। आदमी एक वासना है, जो मूढ़तापूर्ण है। कुछ भी हो जाये, आदमी दुखी होगा। दुख अनिवार्य है।
महावीर के इस विश्लेषण से एक तो रास्ता यह है, जो शापनहार या फ्रायड या सार्च कहते हैं। लेकिन महावीर निराशावादी नहीं हैं। महावीर कहते हैं कि जगत एक प्रवाह है; लेकिन इस जगत में छिपा हुआ एक ऐसा तत्व भी है, जो प्रवाह नहीं है-उसे महावीर धर्म कहते हैं। 'जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते हुए जीव के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और शरण है।'
यह जो हम देख रहे हैं चारों तरफ बहता हुआ, यही अगर सब कुछ है, तो निराशा के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। और अगर निराशा के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है, तो सिर्फ मूढ़ ही जी सकते हैं, बुद्धिमान आत्मघात कर लेंगे। कुछ बुद्धिमान तो आत्मघात करते हैं और कहते हैं कि सिर्फ मूढ़ ही जी सकते हैं। थोड़ी दूर तक यह बात सच भी मालूम पड़ती है कि मूढ़ ही जी सकते हैं। जीने के लिए घनी मढता चाहिए । ___ अब यह जो बाप कह रहा है कि बेटे को काम पर लगा देने के लिए जी रहा है। यह बेटा अपने बेटे को काम पर लगा देने के लिए जी रहा है। बड़ी घनी मूढ़ता चाहिए, इस सबको चलाये रखने के लिए अंधापन चाहिए, दिखायी ही न पड़े कि हम क्या कर रहे हैं। अगर यह दिखायी पड़ जाये कि सभी कुछ निराशा है, और कहीं कोई शरण नहीं है, किसी चीज का कोई भरोसा नहीं, कहीं पैर टिक नहीं सकते, धारा प्रतिपल बही जा रही है। और भविष्य अनजान है, और हर घड़ी जीवन की मौत बनती जाती है। हर सुख दुख में बदल जाता है और हर जन्म अंततः मृत्यु को लाता है। अगर यह साफ दिखायी पड़ जाये, तो आप तत्काल वहीं के वहीं बैठ जायेंगे। यह तो बहुत घबरानेवाला होगा, यह बेचैन करेगा, यह संताप से भर देगा।
और पश्चिम में, इधर संताप बढ़ा है। पश्चिम में एक विचार-दर्शन है, एग्जिस्टेंशियलिज्म, अस्तित्ववाद। वह महावीर के पहले
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