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महावीर-वाणी
भाग : 1
चाहे धन, चाहे यश, चाहे पद, चाहे प्रतिष्ठा, चाहे मित्र, पति-पत्नी, संबंध, पुत्र-सब बहे जा रहे हैं। इस बहाव में, जहां हजार-हजार बहाव हो रहे हैं, जो आदमी सोचता है कि पकड़ कर रुक जाऊं, ठहर जाऊं, पैर जमा लं, वह आदमी दुख में पड़ेगा। यही दुख हमारे जीवन का नरक है। किसी के प्रेम को हम सोचते हैं-शरण। सोचते हैं, मिल गयी छाया। और किसी का प्रेम हमें बरगद की छाया की तरह घेरे रहेगा। लोकन सब चीजें बदल रही हैं। कल छाया बदल जायेगी, सुबह छाया कहीं होगी, दोपहर कहीं होगी, सांझ कहीं होगी। फिर छाया ही नहीं बदल जायेगी, आज घना था वृक्ष, कल पतझड़ आयेगा, पत्ते ही गिर जायेंगे। कोई छाया न बनेगी। आज वृक्ष जवान था, कल बूढ़ा हो जायेगा। आज वृक्ष फैला था, छाते की तरह आकाश में, कल सूखेगा। और यह सूखना, सिकुड़ना, यह प्रतिपल चल रहा है। तो जो वृक्ष के नीचे बैठा है यह आशा बांध कर कि 'मुझे छाया मिल गयी, अब मैं एक जगह रह जाऊं'। उसे आंख नहीं खोलनी चाहिए—पहली शर्त। अगर वह आंख खोलेगा तो कठिनाई में पड़ेगा। उसे अंधा होना चाहिए। और फिर चाहे कितनी ही धूप पड़े, उसे सदा यही व्याख्या करनी चाहिए कि यह छाया है। फिर चाहे कितना ही उलटा हो जाये, वृक्ष में पतझड़ आ जाये, उसे माने ही चलना चाहिए कि फूल खिले हैं, और बसंत की बहार है।
हम सब यही कर रहे हैं। आज जो प्रेम है, कल नहीं होगा। तब हम आंख बंद करके माने चले जायेंगे कि यह प्रेम है। आज जो मित्रता है, कल नहीं होगी, तब भी हम माने चले जायेंगे कि यह मित्रता है। आज जो सुगंध थी, कल दुर्गंध हो जायेगी, तब भी हम माने चले जायेंगे।
आंख बंद करके हमें जीना पड़ता है; क्योंकि जहां हम शरण ले रहे हैं, वहां शरण लेने योग्य कुछ भी नहीं है। और तब आंखें खोलने में डर लगने लगता है। तब हम अपने से ही भयभीत हो जाते हैं। हम किसी चीज को फिर बहुत साफ नहीं देख पाते। क्योंकि डर है कि जो हम मान रहे हैं, कहीं ऐसा न हो कि वहां हो ही नहीं। तो फिर हम आंख बंद करके जीने लगते हैं।
हम सब अंधों की तरह जीते हैं. बहरों की तरह जीते हैं। फिर जो है. उसको हम नहीं देखते। जो था. हम माने चले जाते हैं कि वही है और हम उसको मान कर ही व्यवहार किए चले जाते हैं।
यह जो हमारी चित्त दशा है, विक्षिप्त है। लेकिन कारण क्या है? कारण यह नहीं है कि मैंने जिसे प्रेम किया वह आदमी ईमानदार न था, नहीं, यह कारण नहीं है। मैंने जिसे प्रेम किया, वह एक प्रवाह था। ईमानदार और बेईमान का कोई भी सवाल नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि मैंने जिस पर मैत्री का भरोसा किया, वह भरोसे योग्य न था, नहीं वह एक प्रवाह था। मैंने प्रवाह का भरोसा किया।
चलती हुई, बहती हुई हवाओं पर जो भरोसा करता है, वह कठिनाई में पड़ेगा ही। यह कठिनाई किसी की बेईमानी से पैदा नहीं होती, न किसी के धोखे से पैदा होती है। मेरा तो अनुभव ऐसा है कि इस सारे जगत में निन्यानबे प्रतिशत कठिनाइयां कोई जानकर पैदा नहीं करता, प्रवाह से पैदा होती हैं। आदमी बदल जाते हैं, और रोक नहीं सकते अपने को बदलने से।
कोई बच्चा कब तक बच्चा रहेगा, जवान होगा ही। निश्चित ही बचपन में उस बच्चे ने मां को जो आश्वासन दिये, वे जवान होकर नहीं दे सकता। बच्चे के जवान होने में ही यह बात छिपी है कि मां की तरफ पीठ हो जायेगी, जिसकी तरफ मुंह था। यह हो ही जायेगा। यह बच्चा मां की तरफ ऐसे देखता था जैसे उससे सुंदर इस जगत में कोई भी नहीं, लेकिन एक दिन मां की तरफ पीठ हो जायेगी। कोई और सौंदर्य दिखाई पड़ना शुरू हो जायेगा, और तब मां को लगेगा कि धोखा हो गया। सभी मांओं को लगता है कि धोखा हो गया। अपना ही लड़का-लेकिन उनको पता नहीं कि उनको जिस पति ने प्रेम किया था, वह भी किसी का लड़का
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