SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना पड़े और अंतराल में गेस्टाल्ट बदल जाए। धूलकण न दिखाई पड़ें, प्रकाश की धारा स्मरण में आ जाए। और पूरे समय, चौबीस घण्टे उठते-बैठते-सोते तीसरे बिन्दु पर ध्यान – तीसरे पर खड़े रहना। ये तीन बातें अगर पूरी हो जाएं तो महावीर जिसे सामायिक कहते हैं, वह फलित होती है। तो हम आत्मा में स्थिर होते हैं। यह जो आत्मस्थिरता है, यह कोई जड़, स्टैगनेंट बात नहीं। शब्द हमारे पास नहीं हैं। शब्द हमारे पास दो हैं -चलना, ठहर जाना; गति, अगति; डायनेमिक, स्टैगनेंट। तीसरा शब्द हमारे पास नहीं है। लेकिन महावीर जैसे लोग सदा ही जो बोलते हैं वह तीसरे की बात है, द थर्ड । और हमारी भाषा दो तरह के शब्द जानती है, तीसरे तरह के शब्द नहीं जानती। तो इसलिए महावीर जैसे लोगों के अनुभव 'को प्रगट करने के लिए दोनों शब्दों का एक साथ उपयोग करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। तब पैराडाक्सिकल हो जाता है। अगर हम ऐसा कह सकें, और कोई अर्थ साफ होता हो — ऐसी अगति जो गति है; ऐसा ठहराव जहां कोई ठहराव नहीं है; मूवमेंट, विदाउट मूवमेंट; तो शायद हम खबर दे पाएं। क्योंकि हमारे पास दो शब्द हैं, और महावीर जैसे व्यक्ति तीसरे बिंदु से जीते हैं। तीसरे बिंदु की अब तक कोई भाषा पैदा नहीं हो सकी। शायद कभी हो भी नहीं सकेगी। नहीं हो सकेगी, इसलिए कि भाषा के लिये द्वंद्व जरूरी हैं। आपको कभी खयाल नहीं आता कि भाषा कैसा खेल है। अगर आप डिक्शनरी में देखने जाएं तो वहां लिखा हुआ है -- पदार्थ क्या है? जो मन नहीं है। और जब आप मन को देखने जाएं तो वहां लिखा है— मन क्या है? जो पदार्थ नहीं है । कैसा पागलपन है! न पदार्थ का कोई पता है, न मन का कोई पता है। लेकिन व्याख्या बन जाती है, दूसरे के इनकार करने से व्याख्या बना लेते हैं! अब यह कोई बात हुई कि पुरुष कौन है? जो स्त्री नहीं! स्त्री कौन है? जो पुरुष नहीं! यह कोई बात हुई ? यह कोई डेफिनीशन हुई? यह कोई परिभाषा हुई? अंधेरा वह है जो प्रकाश नहीं, प्रकाश वह है जो अंधेरा नहीं ! समझ में आता है कि बिलकुल ठीक है, लेकिन बिलकुल बेमानी है। इसका कोई मतलब ही न हुआ। अगर मैं पूछूं, दायां क्या है? आप कहते हैं, बायां नहीं है। मैं पूछूं बायां क्या है? तो उसी दाएं से व्याख्या करते हैं जिसकी व्याख्या बाएं से की थी ! यह व्हिसियस है, सर्कुलर है । लेकिन आदमी का काम चल जाता है। सारी भाषा ऐसी है। डिक्शनरी से ज्यादा व्यर्थ की चीज जमीन पर खोजनी बहुत मुश्किल है— शब्दकोश से ज्यादा व्यर्थ की चीज। क्योंकि शब्दकोश वाला कर क्या रहा है? वह पांचवें पेज पर कहता है कि दसवां पेज देखो, और दसवें पेज पर कहता है कि पांचवां देखो। अगर मैं आपके गांव में आऊं और आपसे पूछूं कि रहमान कहां रहते हैं? आप कहें कि राम के पड़ोस में? मैं पूछूं, राम कहां रहते हैं? आप कहें, रहमान के पड़ोस में। इससे क्या अर्थ होता है? हमें अज्ञात की परिभाषा उससे करनी चाहिए जो ज्ञात हो । तब तो कोई मतलब होता है। हम एक अज्ञात की परिभाषा दूसरे अज्ञात से करते हैं। वन अननोन इज डिफाइन्ड बाई एन अदर अननोन । हमें कुछ भी पता नहीं है, एक अज्ञात को हम दूसरे अज्ञात से व्याख्या कर देते हैं । और इस तरह ज्ञात का भ्रम पैदा कर लेते हैं। मगर इससे काम चल जाता है। इससे काम चल जाता है। काम महावीर जैसे व्यक्ति की तकलीफ यह है कि वह तीसरे बिंदु पर खड़ा चलाऊ नालेज, ज्ञान का जो हमारा भ्रम है वह इसी तरह खड़ा हुआ है। यह ज्ञान । पर इससे कोई सत्य का अनुभव नहीं होता । होता है जहां चीजें तोड़ी नहीं जा सकतीं। जहां द्वंद्व नहीं रह जाता, जहां दो नहीं रह जाते। जहां अनुभूति एक बनती है और को वह किससे व्याख्या करे, क्योंकि हमारी सारी भाषा यह कहती है कि यह नहीं। तो किससे व्याख्या करे? वह ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकता है निषेधात्मक, लेकिन वह निषेधात्मक भी ठीक नहीं है। वह कह सकता है, वहां दुख नहीं, अशांति नहीं। लेकिन जब हम मतलब समझते हैं, तो हमारा क्या मतलब होता है? Jain Education International 327 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy