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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 उतना ही प्रगाढ़ हो जाता है। स्वप्न जब बिदा हो जाते हैं नींद में तो दिन में विचार कम हो जाते हैं। ये सब संयुक्त घटनाएं हैं। जब रात स्वप्नरहित हो जाती है तो दिन विचार शून्य होने लगता है, विचार रिक्त होने लगता है। इसका यह मतलब नहीं है कि आप फिर विचार नहीं कर सकते, इसका यह मतलब है कि फिर आप विचार कर सकते हैं, लेकिन करने का आब्सेशन नहीं रह जाता, जरूरी नहीं रह जाता कि करें ही। अभी तो आपको मजबूरी में करना पड़ता है। आप चाहें तो भी, न करें तो भी करना पड़ता है। और जिस विचार को आप चाहते हैं न करें, उसे और भी करना पड़ता है। अभी आप बिलकुल गुलाम हैं। अभी मन आपकी मानता नहीं। महावीर से अगर पूछे तो विक्षिप्त का यही लक्षण है—जिसका मन उसकी नहीं मानता है। विक्षिप्त का यही लक्षण है, पागल का यही लक्षण है। तो हममें पागलपन की मात्राएं हैं। किसी का जरा कम मानता है, किसी का जरा ज्यादा मानता है, किसी का थोड़ा और ज्यादा मानता है। कोई अपने भीतर ही भीतर करता रहता है, कोई जरा बाहर करने लगता है वही काम। बस इतनी मात्राओं के फर्क हैं-डिग्रीज आफ मैडनेस। क्योंकि जब तक ध्यान न उपलब्ध हो तब तक आप विक्षिप्त होंगे ही। ___ ध्यान का अभाव विक्षिप्तता है। ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति के स्वप्न शून्य हो जाते हैं। ऐसी हो जाती है उसकी रात, जैसे प्रकाश की वल्लरी में धूल के कण न रह गए। जब वह सुबह उठता है तो सच पूछिए वही आदमी सुबह उठता है जिसने रात स्वप्न नहीं देखे। नहीं तो सिर्फ नींद की एक पर्त टूटती है और सपने भीतर दिनभर चलते रहते हैं। कभी भी आंख बंद करिए-दिवा-स्वप्न शुरू हो जाते हैं। सपना भीतर चलता ही रहता है। सिर्फ ऊपर की एक पर्त जाग जाती है। काम चलाऊ है वह पर्त। उससे आप सड़क पर बचकर निकल जाते हैं, उसमें आप अपने दफ्तर पहुंच जाते हैं। उसमें अपने आप काम कर लेते हैं-आदत, रोबोट, आपके भीतर जो यंत्र बन गया है वह काम कर लेता है। इतना होश है बस। इसे महावीर होश नहीं कहते हैं। रात जब स्वप्न परी तरह समाप्त हो जाते हैं। तब सबह आप ऐसे उठते हैं कि उस उठने का आपको कोई भी पता नहीं है। वह उठने में इतना ही फर्क है जैसे किसी ने एक मिट्टी के तेल में जलती हुई बाती देखी हो-पीला, धुंधला, धुंए से भरा हुआ प्रकाश। और उस आदमी ने पहली दफे सूरज का जागना देखा हो, सूरज का उगना देखा हो, इतना ही फर्क है। अभी जिसे आप जागना कहते हैं वह ऐसा ही मद्दी-सी, पीली-सी, धीमी-सी लौ है। जब रात स्वप्न समाप्त हो जाते हैं, तब आप सुबह उठते हैं जैसे सूरज जगा-उस जागी हुई चेतना में विचार आपके गलाम हो जाते हैं। मालिक नहीं होते। और महावीर कहते हैं-जब तक विचार मालिक हैं, तब तक ध्यान कैसे हो पाएगा? विचार की मालकियत आपकी होनी चाहिए, तब ध्यान हो सकता है। तब आप जब चाहें विचार करें, जब चाहें तब न करें। __तो दूसरा प्रयोग-एक तो नींद के साथ-दूसरा प्रयोग सुबह जागने के साथ। जैसे ही जागे वैसे ही प्रतीक्षा करें उठकर कि कब पहला विचार आता है। पहले विचार को पकड़ें, कब आता है। धीरे-धीरे आप हैरान होंगे, बहुत हैरान होंगे कि जितना आप जागकर पहले विचार को पकड़ने की कोशिश करते हैं, उतनी ही देर से आता है। कभी घंटों लग जाएंगे और पहला विचार नहीं आयेगा। और यह घंटा जो है विचाररहित, यह आपकी चेतना को शीर्षासन से सीधा खड़ा करने में सहयोगी बनेगा। आप पैर के बल खड़े हो सकेंगे। क्योंकि यह घंटाभर तो बहुत दूर है अगर एक मिनट के लिए भी कोई विचार न आए तो आपको विचार नरक है, यह अनुभव होना शुरू हो जाएगा। और निर्विचार होना आनंद है, स्वर्ग है यह अनुभव होना शुरू हो जाएगा। एक मिनट को भी विचार न आए तो आपको अपने भीतर विचारों के अतिरिक्त जो है, उसका दर्शन शुरू हो जाएगा। तब धूल नहीं दिखाई पड़ेगी, प्रकाश की वल्लरी दिखाई पड़ेगी। तब आपका गेस्टाल्ट बदल जाएगा। 324 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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