________________
वैयावृत्य और स्वाध्याय
अंधकार प्रवेश नहीं करता है।
लेकिन यह क्रमशः भीतर उतरना। इसलिए स्वाध्याय को महावीर ने अंतिम नहीं कहा, चौथा तप कहा है। अभी और भी कुछ करने को भीतर शेष रह जाता है। उन दो तपों के संबंध में हम आगे आने वाले दो दिनों में बात करेंगे। पांचवां तप है ध्यान, छठवां तप है कायोत्सर्ग। पर स्वाध्याय के बिना कोई ध्यान में नहीं जा सकता। इसलिए महावीर ने जो सीढ़ियां कही हैं, वे अति वैज्ञानिक हैं। __ लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं- ध्यान में जाना है। मैं उनकी कठिनाई जानता हं। वे स्वाध्याय में नहीं जाना चाहते, क्योंकि स्वाध्याय बहुत पीड़ादायी है। और ध्यान में क्यों जाना चाहते हैं? क्योंकि किताबों में पढ़ लिया है, गुरुओं को कहते सुन लिया है कि ध्यान में जाने से बड़ा आनंद आता है।
लेकिन जो अपने अर्जित दुख में जाने को तैयार नहीं है वह अपने स्वभाव के आनंद में जा नहीं सकता है। पहले तो दुख से गुजरना पड़ेगा; तभी, तभी सुख की झलक मिलेगी। नरक से गुजरे बिना कोई स्वर्ग नहीं है। क्योंकि हमने नरक निर्मित कर लिया है, हम उसमें खड़े हैं। प्रत्येक आदमी यह चाहता है कि नरक में से एकदम स्वर्ग मिल जाए, यहीं। इस नरक को मिटाना न पड़े और स्वर्ग मिल जाए। यह नहीं हो सकता। क्योंकि स्वर्ग तो यहीं मौजूद है, लेकिन हमारे बनाए हुए नरक में छिप गया है, ढंक गया है। ध्यान रहे, स्वर्ग स्वभाव है और नरक हमारा एचीवमेंट, हमारी उपलब्धि है। बड़ी मेहनत करके हमने नरक को बनाया है, बड़ा श्रम उठाया है। उसे गिराना पड़ेगा। स्वाध्याय उसे गिराने के लिए कुदाली का काम करता है। जैसे कोई मकान को खोदना शुरू कर दे।
आज इतना ही। पर पांच मिनट रुकें, धुन में भागीदार हों और फिर जाएं।
309
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org